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प० टोडरमल जी और शिथिलाचारी साधु ]
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भावलिंग का धारी है वही कर्म प्रकृतियो के समूह का नाश करता है। बहुदोसाणावासो सुमलिणचित्तो ण सावयसमो सो ॥१५३॥
- "भावपार" अर्थ-जो साधु मलिनचित्त हुआ मुनिचर्या मे अनेक दोष लगाता है वह श्रावक के समान भी नहीं है।
धुवसिद्धी तित्थयरो चउणाणजुदो करेइ तवयरणं । णाऊण धुव कुज्जा तवयरणं गाणजुत्तो वि ॥६० ॥
- "मोक्षपाहुड" ___ अर्थ-चारज्ञान के धारी और जिनकी सिद्धि निश्चित है, ऐसे तीर्थङ्कर भी तपश्चरण करते है ऐसा जानकर विद्वान् मुनि को भी निश्चय से तपस्या करनी चाहिये ।
सुहेण भाविद णाण दुहे जादे विणस्सदि। तम्हा जहाबलं जोई अप्पा दुक्खेहि भावय ॥ १२ ॥
- "मोक्षपाहुड़" अर्थ-सुख की वासना मे रहा ज्ञान दुख पड़ने पर नष्ट हो जाता है। इसलिये योगी को यथा शक्ति दुख सहने का अभ्यास करना चाहिये । अर्थात् परीपहो को सहना चाहिये ।
नाणं चरित्तहीणं लिंगग्गहण च सणविहूणं । · संजमहीणो य तवो जइ चरइ णिरत्ययं सवव ॥५॥
- 'शोलपाहुड़" अर्थ-चारित्रहीन ज्ञान को, सम्यक्त्वरहित लिंगग्रहण को और सयमहीन तप को यदि कोई आचरता है तो ये उसके निरर्थक हैं।