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[* जैन निवन्ध रलावली भाग २ जो विसयलोलएहि णाणीहि हविज्ज साहिदो मोक्खो। तो सो सच्चइपुत्तो दसपुत्वीओ वि कि गदो गरयं ॥३०॥
- "शीलपाड़" अर्थ-यदि इन्द्रिय-विपयो के लोलुरी शास्त्रज्ञानियो ने ही मोक्ष साध लिया होता तो दशपूर्त का ज्ञाता होकर भो सात्यकिपुत्र-रुद्र नरक मे क्यो जाता?
यह तो हुआ श्री कुन्दकुन्द स्वामी का उपदेश । इन्ही सवका साराग आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में एक ही पद्य मे कह दिया है।
गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नव मोहवान् । अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोही मोहिनो मुनेः॥
__ अर्थ-गृहस्थ यदि निर्मोही है तो वह मोक्षमार्ग का पथिक है । किन्तु मुनि होकर मोह रखता है तो वह मोक्षमार्ग का पथिक नही है। मोही मुनि से निर्मोही गृहस्थ श्रेष्ठ माना जाता है।
__आचार्य गुणभद्र को तो वन को छोड रात्रि मे वस्ती के समीप आ जाने मात्र मुनियो की इतनी सो शिथिलता भी सहन न हुई है। वे आत्मानुशासन मे लिखते है
इतस्ततश्च त्रस्यंतो विभावार्या यथा मृगा । वनाद्विशन्त्युपग्रामं कलौ कष्टं तपस्विनः ॥ १६७ ॥ ____अर्थ-जिस प्रकार इधर उधर से भयभीत हुए गीदड रात्रि मे वन को छोड गांव के समीप अ) जाते है, उसी प्रकार इस कलिकाल मे मुनिजन भी वन को छोड रात्रि में गांव के समीप रहने लगे है। यह खेद की बात है।