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५० टोडरमल जी और शिथिलाचारी साधु ]
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रानी रेवती की कथा मे आचार्य महाराज ने श्राविका रेवती को तो आशीर्वाद कहला भेजा। परन्तु वही पर रहने वाले ग्यारह अङ्ग के पाठी किन्तु चारित्र भ्रष्ट भव्यसेन मुनि को आशीर्वाद कहला नही भेजा। मोक्षमार्ग मे सम्यक्त्व और चारित्र का ही सर्वाधिक महत्व है। इसीलिए गुणस्थानो का क्रम सम्यक्त्व और चारित्र की अपेक्षा से है, ज्ञान की अपेक्षा से नहीं है । ज्यो-ज्यो चारित्र बढता जायेगा त्यो त्यो ही आत्मा ऊपर के गुणस्थानो मे चढता जावेगा। ऐसी बात ज्ञान की वृद्धि के माथ नही है-जान बढता रहे तव भी गुणस्थान वढ़ता नही। अल्पश्रत के धारी शिवभुति मुनि ने तुसमाष को घोषते हुए ही सिद्धि को प्राप्त कर लिया। यही वात मूलाचार मे कही है
धोरो वइरग्गपरो थोवं हि य सिक्खिदण सिझदि हु। णय सिज्झदि वेरग्गविहीणो पढिरण सव्वसत्थाई ॥३॥
-- मूलाचार-"समय साराधिकार" अर्थ-धोरवोर वैराग्यपरायण मुनि तो थोडा पढ लिखकर ही सिद्धि को पा लेता है। किन्तु वैराग्यहीन मुनि सव शास्त्रो को पढकर भी मिद्वि को नहीं पाता है।
___ इन सब उल्लेखो मे मुनि के निर्मल चारित्र को प्रधानता दी है। अर्थात् किसी मुनि मे अन्य सभी गुण हो और चारित्र की उज्ज्वलता न हो तो सव निरर्थक है।।
यह तो हुआ पूर्वाचार्यों का कथन । तदनन्तर वि० स० १३०० के करीव मे मुनिवेपियो का जो कुछ हाल था उसे देखकर प० आशाधर जी ने अनगार धर्मामृत के दूसरे अध्याय मे अपने निम्न विचार व्यक्त किये है