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[ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
मुद्रां सांव्यवहारिकों त्रिजगतीवंद्यामपोद्यार्हती, वामां केचिदहंयवो व्यवहरन्त्यन्ये बहस्तिां श्रिता । लोकं मूतवदाविशत्यवशिनस्तच्छायया चापरे, म्लेच्छन्तीह तर्क स्त्रिधा परिचयं पुं देहमोहैस्त्यज ॥ ६३ ॥
इस पद्य का अर्थ आशाधर जी ने स्वोपज्ञ संस्कृत टीका मे जैसा किया है उसका हिन्दी अनुवाद निम्न प्रकार है
वर्तमान काल मे एक प्रकार के अहकारी साधु तो वे हैं जो समीचीनरूप से व्यवहार में आने वाली और तीन जगत में वन्दनीय ऐसी आर्हतीमुद्रा जिनमुद्रा को छोडकर उससे उल्टी जटा रखना, भस्म रमाना आदि विपरीत मुद्रा को धारण किये हुए है वे तो तापसी आदि है । जिस प्रकार क्षुद्र लोग खोटे सिक्के (मुद्रा) बनाकर प्रचार मे लाते हैं उसी प्रकार ये तापसी विपरीत मुद्रा को धारण कर साधु नाम से प्रचार मे आ रहे है। दूसरी प्रकार के साधु वे है जो द्रव्य जिनलिंग के धारी बाहर से यानी शरीर से ( न कि मन से ) जिन मुद्रा को धारण कर जैन मुनि कहलाते है किन्तु इन्द्रिये उनके वश मे नही है । वे धार्मिक लोगो से अनेक ऐसी चेष्टायें कराते है जैसे उनको कोई भूत लग गया हो । अर्थात् वाहर से जैन मुनि का वेप देख कर विचारे धर्मपिपासु भोले जैनी भाई उन पर ऐसे आकर्षित हो जाते है कि वे मुनि जैसा कहते हैं वैसा हो वे करने लग जाते है । उन भोले भावुक लोगो की ऐसी चेष्टा देखने से ऐसा प्रतीत होने लगता है कि मानो इन जैनी भाइयो को कोई भूत-प्रेत लग गया है जिसमे वावले होकर यद्वा तद्वा चेष्टाये करते है । तथा तीसरी प्रकार के साधु वे हैं जो द्रव्य जिनलिंग