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पं० टोडरमल जी और शिथिलाचारी साधु
जिन देव-शास्त्र-गुरू की हम नित्य पूजा करते हैं उनमे देव शास्त्र के साथ गुरू का नाम भी जुडा हुआ है। इससे प्रगट होता है कि - गुरू यानी मुनि का पद भी कम महत्व का नही है | गुरू के लिये एक कवि ने यहाँ तक लिख दिया है कि - " वे गुरू चरण धरे जहाँ जग मे तीरथ होइ ।" ऐसे महान् पद के धारी मुनि भी केवल वेषमात्र से ही मुनि न होने चाहिए, किन्तु वेष के अनुसार उनमे मुनिपने का वह उज्ज्वल चारित्र भी होना चाहिये जो मुनियो के आचार शास्त्रो मे लिखा है । आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार मे गुरू का लक्षण इस प्रकार लिखा है
विषयाशावशातीतो निरारंभोऽपरिग्रहः । ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ॥
अर्थ - जो इन्द्रियो के विषयो की आशा से दूर रहता हुआ आरम्भ परिग्रह से रहित और ज्ञान-ध्यान तप मे तल्लीन रहता है, वही प्रशसनीय मुनि कहलाता है ।
इस महान पद की सुरक्षा के लिए हमारे पूर्वाचार्यों ने मुनियो के शिथिलाचार पर वडी कडी दृष्टि रक्खी है । वेषमात्र को तो उन्होने आदरणीय ही नही माना है । उन्होने इस दिशा मे सावधान रहने के लिए मुनिभक्तो को जो आदेश दिया है उसके कुछ नमूने हम यहाँ लिख देना उचित समझते हैं