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[ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
संस्कृत, प्राकृत, मागधी, कनडी, आदि विविध भाषाओ मे ताडपत्रो पर लिखे कितने ही प्रभावशाली प्राचीन जैन ग्रन्थ पाये जाते हैं । यद्यपि अधिकाश - जैनग्रन्थ विरोधियो की द्वेषाग्नि मे और जैनियो की लापरवाही के कारण चूहो - दीमको आदि से नष्ट हो गये है, तथा कही २ जैनियो की वह लापरवाही अद्यापि वैमी ही बनी हुई है, तथापि ईडर, जैसलमेर, जयपुर, आरा, नागौर, मूडविद्री आदि स्थानो के ग्रन्थ भडारो मे अब भी जैनग्रन्थो का अच्छा संग्रह है। जैन ग्रन्थकर्त्ताओ ने सभी विषयो पर लेखनी उठाई है, उनकी रचना शब्द - सौन्दयं, भाव गाभीर्य और अर्थ- चमत्कृति मे अपूर्व कही जा सकती है जैनेन्द्र, शब्दानुशासन आदि व्याकरण, अभिधानचिंतामणि, विश्वलोचन आदि कोष गद्य चितामणि, तिलक मजरी, आदि गद्यग्रन्थ, धर्मशर्माभ्युदय, पाश्वभ्युदय, द्विसधान, चंद्रप्रभ चरित आदि काव्य, जीवधर च यशस्तिलक चपू आदि चपू, अलकार चिंतामणि, काव्यानुशासन आदि अलंकार ग्रथ अष्ट सहस्री, प्रमेयकमलमार्तंड, श्लोकवार्तिक, स्याद्वादरत्नाकर आदि न्यायग्रथ, मोक्षशास्त्र, धवल जयधवल, महाधवल आदि दार्शनिक ग्रन्थ, इसी प्रकार वैद्यक ज्योतिष गणित आदि विषयो के भी जैन ग्रन्थो की कमी नही है । इन सब मे कितने ही ग्रन्थ नि सदेह प्रकाण्ड विद्वत्ता के सूचक, गौरव शाली और साहित्य ससार के चमकते हीरे कहे जाने चाहिये । वर्तमान मे जितने जैन ग्रन्थ मुद्रित हुए है उनसे कई गुणे अभी हाल अप्रकाशित हैं। दक्षिण मे तामिल व कनडी इन दोनो भाषाओ के जो व्याकरण प्रथम प्रस्तुत हुए हैं वे जैनियो ने ही रचे थे। अपने उपयोगीं और सत्य सिद्धान्तो का सर्व साधारण मे प्रचार करने की गरज से कितने ही मुख्य जैनग्रन्थ प्राकृत भाषा मे रचे गये हैं । हरिभद्र सूरि ने भी यही हेतु