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* जैन निबन्ध रत्नावली भाग
सुनकर वनमाला लक्ष्मण जी से वोली-मुझे आपके आने में फिर भी कुछ सन्देह है इसलिए आप यह प्रतिज्ञा करे कि-"यदि मैं न आऊँ तो रात्रि भोजन के पाप का भोगने वाला होऊँ ।"
देखा पाठक | रात्रि भोजन का पाप कितना भयकर है। प्रीतकर के पूर्व भव के स्याल के जीव ने मुनीश्वर के उपदेश से रात्रि में जल पीने का त्याग किया था जिसके प्रताप से वह महा पुन्यवान् समृद्धिशाली प्रीतकर हुआ था। वास्तव मे वात सोलह आना ठीक है कि रात्रि भोजन अनेक दोषो का घर है। जो पुरुप रात्रि को भोजन करता है वह समस्त प्रकार की धर्म क्रिया से हीन है, उसमे और पशु मे सिवाय सीग के कोई भेद नही है। जिस रात्रि मे सूक्ष्म कीट मादि का सचार रहता है मुनि लोग चलते-फिरते नही, भक्ष्याभक्ष्य का भेद मालूम नही होता, आहार पर आये हुए बारीक जीव दीखते नही ऐसी रात्रि मे दयालु श्रावको को कदापि भोजन नही करना चाहिये। जगह-जगह जैन ग्रन्थो मे स्पष्ट निषेध होते भी आज हमारे कई जैनी भाई रात्रि मे खूब माल उडाते हैं। कई प्रान्तो के जैनियो ने तो ऐसा नियम बना रक्खा है कि रात्रि में अन्न की चीज न खानी--शेप पेडा, वरफी आदि खाने में कोई हर्ज ही नही समझते । न मालूम ऐसा नियम इन लोगो ने किस शास्त्र के आधार पर बनाया है। खेद है जिन कलाकन्द, वरफी आदि पदार्थों मे मिठाई के प्रसग से अधिक जीव घात होना सम्भव है उन्हे ही उदरस्थ ; करने की इन भोले मादमियो ने प्रवृत्ति कर अपनी अजानता
और जिह्वा लपटता का खूव परिचय दिया है। श्री सकलकोति जी ने श्रावकाचार मे साफ कहा है कि