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दर्शनभक्ति (माथुरसघी) का शुद्ध पाठ ] [ ३६५ अरहताऽऽगम सत्त्थे चरित्त सद्दहणलक्खण ततु
उवमम वेदय-खइय तिविह सम्मत्तमभिवदे (१) ।।७।। सम्मत्ते थिरभावो कायव्वो मेरु पव्वय सरिच्छो
जेण हु णाण चरित्ता हवति सम्मत्तमूलाओ (२) ।।८।। सम्मत्त सलिलपवहो णिच्च हिययम्मि पवहए जस्स कम्म बालुववरणुध्व तस्स बध च्चिय ण एइ (३) ।।६।।
॥ इति दर्शन भक्ति समाप्ता ।।
नोट-यह दर्शन भक्ति-पाठ माथुर सघी (काष्ठा सघी) हैं मूल सघी नही हैं । मूल सघी और माथुर सघी (काष्ठासघी) भक्ति पाठ जुदे जुदे पाये जाते हैं। यह दर्शनभक्ति का माथुरसघी शुद्ध पाठ एक प्राचीन हस्तलिखित बसवा ग्राम के गुटके से उतारा गया है जो वि० स०१६२१ का है। इस पाठ में प्राकृत दर्शन भक्ति और सस्कृत दर्शन भक्ति के जुदे जुदे पाठ नहीं हैं किन्तु प्राकृत और सस्कृत दोनो भाषाओमें यह एक दर्शन भक्ति बनाई गई है।
'दिव्यध्वनि (मासिक) वर्ष १ अक ५ (अप्रैल ६६) तथा जैनसन्देश शोधाक न० २३ मे भी यह दर्शन भक्ति पाठ छपा है जो काफी अशुद्ध है। उनकी इस प्रस्तुत पाठ से तुलनाकर शुद्धाशुद्ध रूप को भली प्रकार जाना जा सकता है।
इसकी जो अन्तिम हवी गाथा है वह पद्मनन्दि कृत 'धम्मरसायण' ग्रथ मे भी गाथा न० १४० के रूप में पाई जाती है। तथा कुन्दकुन्द के दर्शनपाहुष्ट मे भी गाथा न० ७ के रूप मे पाई जाती है और वहाँ से यहां ली गई है।
अन्य भक्तियो की तरह दर्शन भक्ति-पाठ भी रहा है। प० सोमदेव ने भी यशस्तिलिकचम्पू (ज्ञानपीठ से प्रकाशित 'उपासकाध्ययन' पृ. २२५) में 'दर्शनभक्ति की सुन्दर रचना की है।