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★ जैन निवन्ध लावती भाग २
प्रतिष्ठानिक केके नामने भी आगाधर या उक्त श्लोक था। जिसके शावकी निकर उन्होंने जो लोक ना है वह प्रतिष्ठानिक के पृ ३४० पर इस प्रकार है
सर्वेषु वास्तु सदा निवनत मेनं
श्री वास्तुदेवमखिलस्य कृतोपकार । प्रागेव वास्तुविधि कल्पितशभागमो
शानकोणदिशि पूजनया धिनामि ॥
अर्थ-नवरी से सदा निवास करने वाले और नवका जिगने उपकार दिया है से ही जिसका ईशान कोण की दिशा में वास्तुविधि से यज्ञ भाग कल्पित है ऐसे इस वास्तु ट्रेन को पूजता हूँ ।
अभियेक पाठ संग्रहके अन्य पाठों में वास्तुदेव का उल्लेख नही है । हां अगर जिनगृहदेव को वास्तुदेव मान लिया जाये तो कदाचित् जैनधर्म से उसको नगति बैठाई जा सकती है । क्योकि जैनागम में जिन मन्दिर को नवदेव से गणना की है। पता नही आशावर और नेमिचन्द्र का वास्तुदेव के विषय में यही अभिप्राय रहा है या और कोई ? फिरभी वह तो स्पष्ट ही है कि जैन कहे जाने वाले अन्य किनने ही क्रियाकाडी ग्रन्थो मे वास्तुदेव को जिनगृहदेव के अर्थ में नहीं लिया है ।
जैसे कि नेमिचन्द्र प्रतिष्ठापाठ के परिशिष्ट मे वास्तु बलि विधान नामक एक प्रकरण छपा है वह न मालूम नेमिचन्द्र कृत है या अन्य कृत ? उसमे वास्तुदेवो के नाम इस प्रकार लिखे हैं