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वास्तुदेव
श्री प० आशाधरजी ने अपने बनाये प्रतिष्ठा पाठ पत्र ४३ मे और अभिषेक पाठ के श्लोक ४४ मे वास्तुदेव का उल्लेख निम्न शब्दो मे किया है
वास्तूनामधिष्ठातृतयानिशम् ।
श्री वास्तुदेव कुर्वन्ननुग्रहं कस्य मान्यो नासीति मान्यसे ॥४४॥ ओ ह्रीं वास्तुदेवाय इदमर्घ पाद्य
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गृहो के अधिष्ठामान्य नही हो !
अर्थ - हे श्री वास्तुदेव (गृह देव ) तुम ताप ने से निरन्तर उपकार करते हुये फिसके सभी के मान्य हो इसी से मैं भी आपको मानता हू । ऐसा कह कर वास्तुदेव के लिये अर्घ देवे 1
श्रुतसागर ने वास्तुदेव की व्याख्या ऐसी की है"वास्तुरेव देवो वास्तुदेव ।" घर ही को देव मानना वास्तुदेव है । जैसे लौकिक मे अन्नदेव, जलदेव, अग्निदेव आदि माने जाते हैं । इससे मालूम होता है कि श्रुतसागर की दृष्टि मे वह कोई देवगति का देव नही है । करणानुयोगी - लोकानुयोगी ग्रन्थों मे भी वास्तु नाम के किसी देव का उल्लेख पढने से नही आयां है | आशाधर ने इस देव का नाम क्या है यह भी नही लिखा है । यहाँ तक कि इसका स्वरूप भी नही लिखा है ।