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[* जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
मन्दिरी के प्रबंधक ये ही लोग होते है और जैन मन्दिरो मे रुपये की कभी प्राय होती नहीं उस रुपये को ये लोग मन्दिर के अन्य कामो मे तो अनाप-सनाप खर्च कर देते है, पर जब यह कहा जाता है कि जो जैन शास्त्र नये प्रकाशित होते हैं उनकी एक २ प्रति जैन मन्दिर मे अवश्य मगानी चाहिए-तो उत्तर मिलता है “यह तो फिजूल खर्च है, कौन पढने वाला है।" इन श्रीमतो के लिये जिनवाणी आकर्षण की चीज नहीं है। क्योकि ये लक्ष्मी के दास उसके स्वाद को नहीं जानते है।
किसी कवि के कहा है"यथा किराती करिकुम्भ जाती,
मुक्तां परित्यज्य वितिगुजऑ।" जैसे भीलणी के सामने गजमोती और चिरमिये रक्खी जाये तो वह चिरमियो को ग्रहण करेगी, गजमोतियो को नही । क्योंकि वह गजमोतियों के महत्व को नहीं जानती है। यही हालत समाज की प्रायः शास्त्र और शास्त्रज्ञो के साथ है, व्ह इनका कुछ भी महत्व नहीं समझती यह स्थिति बडी भयंकर है धर्म का मूल ही संकट में है।
(कुछ भी हो यदि धर्म की गाडी चलानी है तो वह सुचारु रूप से सरस्वती और लक्ष्मी इन दो पहियो से ही चल सकेगी, अकेली एक एक लक्ष्मी से नही।)
अन्तमे समाज से मेरा निवेदन है कि मैंने जो यह कटुसत्य लिखा है उसके लिए मुझे क्षमा करेंगे और इस गम्भीर समस्या पर दूरदर्शिता से विचार कर समुचित समाधान सामने लायेंगे। .