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हमने भूमिका ही कुछ ऐसी वनादी है जिससे पण्डित होता एक अभिशापही समझा जावेगा ( जैन पण्डितो की दो स्थानो के लिये माग होती है- एक जैन विद्यालयो में अध्यापक के लिये और दूसरी शास्त्र सभा के लिये । सो शास्त्र सभा के लिये तो ऐसी कोई जरूरी नही है, पण्डित आसानी से मिल जाये तो ठीक है, नही तो न सही । क्योकि धार्मिक रुचि लोगो मे घटती जा रही है । रही अध्यापकी की बात सो जैन विद्यालय तो तेजी से उठते जा रहे हैं । क्योकि आज के जैनी भाई प्राय अपने लडको को सरकारी स्कूलो मे ही पढाना ही अच्छा समझते है । कारण कि वहाँ की पढाई से अच्छी तनखा पर सरकारी नौकरी मिल जाती है ऐसी उनकी धारणा है। जैन विद्यालय की पढाई से तो न समाज मे पूछ है और न कोई नौकरी है । ओर जैन विद्यालयो मे नौकरी भी कही मिल जाये तो बहुत कम वेतन पर, जिससे उसका गुजारा भी मुश्किल से चले । अत उनका कहना है कि इस पढाई को पढाना एक तरह से लडको का जीवन बिगाडना है इस प्रकार जिन कामो के लिये जैन पण्डितो की जरूरत पडती थी वे काम ही अब नही रह रहे हैं तो नये जैन पण्डित होने की आशा ही अब क्या की जावे ? ) इतना सबकुछ होते हुए भी समाज जैन पण्डितो का बहु सन्मान करती होती, उनको अपनी पलको पर बैठाती होती तभी कुछ गनीमत थी, इससे यह क्रम किसी तरह चलता रहता, किन्तु आज तो स्थिति बडी भयकर है । समाज हितैषी नेताओ का प्रमुख कर्त्तव्य है कि वे इस समस्या पर दूरदर्शिता से अविलम्ब विचार करे ।
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क्या कभी जैनी भाई ...
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विद्वानो के प्रति ही नही, अधिकांश श्रीमतो की अभिरुचि तो जैन साहित्य के प्रति भी नही है । प्राय सभी जैन