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[ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
पडितो की जरूरत पड़ जाती है तो थोडी बहुत उनकी खुशामदी करके अपना काम निकाल ही लेते है । काम निकले वाद कभी उनको फूटी आँख से भी वे नही देखते है। अहसान मानना तो दूर रहा । यही नहीं जैन लेखक जब समय लगा कर बडे परिश्रम से लेख लिखकर अपना ही गाठ का डाक खर्च लगाकर उन्हें दि० जैन पत्रो मे प्रकाशनार्थ भेजते हैं तो पत्रकार उन्हे किसी तरह छाप तो देते हैं । परन्तु जिस अक मे वह छापा जाता है वह अक भी उन लेखको को फ्री नही भेजा जाता है। इस अनुदारता का भी कोई ठिकाना है। ऐसी नीति जैनमित्र आदि कुछेक पत्रो को छोड़कर बाकी सब ही की है। श्वेताम्बर जैन पत्रकार तो अंक ही नहीं दि० जैन लेखको को पुरस्कार तक भी देते हैं । गीताप्रेस गोरखपुर का विख्यात पत्र 'कल्याण" में भी किसी का लेख छपता है तो लेखक को साधारण अक ही नहीं उसका बहुमूल्य विशेषाक भी भेट मे मिलता है। परन्तु दि० जनपत्रो का अजब हाल है। उन्हे लेखको की परवाह नहीं है। जिस समाज में पंडितो के प्रति ऐसा रूखा व्यवहार है उस समाज मे पडित नजर आरहे है यहो आश्चर्य है। समाज की जैसी मनोवृत्ति है वैसी ही दशा उसकी होकर रहेगी । वह समय दूर नही जब संक्डो कोसो पर कोई विरला ही जैन पडित सुनने को मिलेगा और तब पडितों के लिये समाज तरसेगी। आये साल जैन पडितो की कमी होती जा रही है। इस वर्ष ही तीन प्रसिद्ध पडित-अजितकुमार जी, जुगलकिशोरजी और चैनसुखदासजी चल बसे । इसी तरह दस बीस वर्षों में पुराने पडित सब दिवगत हो जायेंगे । और समाज को पडितो के प्रति वर्तमान मे जो उपेक्षावृत्ति है उसे देखते हुये नये पडित भी कोई क्यों बनेगे ?