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[ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
[चारो पर्वो मे चतुविध आहार का त्यागरूप उपवास नियम से करता है । भिक्षा प्राप्त करने की विधि इस प्रकार है - प्रथम हो पात्रको धोकर चर्या के लिये श्रावककें घर मे प्रवेश करता है और उसके आगन में ठहर कर धर्मलाभ कह कर स्वय ही ( दूसरो को भेज कर भिक्षा नही मगवाता ) भिक्षा मागता हे । भिक्षा नही मिलने पर बिना दीनमुख हुए वहा से शीघ्र निकल दूसरे घर मे जाता है । वहाँ भी ( धर्म लाभ कह कर ) अथवा मौन से काय को दिखाकर भिक्षा मागता है | कही बीच मे ही यदि कोई श्रावक कह दे कि यहाँ हो भोजन करिये तो पूर्व घरो से प्राप्त अपनी भिक्षा को पहिले खाकर शेप अन्न उसके यहाँ का खाता है । यदि ऐसा कोई न कहे तो तूम फिर कर अपने उदर भरने तक की भिक्षा अनेक घरों से प्राप्त कर पीछे किसी एक घर मे प्रासुकजल मागकर जो कुछभी रस नीरस भिक्षा मिली है उसे यत्न से शोध कर खाता है । फिर पात्र को धोकर गुरु के समीप जाता है । यदि कोई अनेक घरो से भिक्षा लेने के इस कार्य को नहीं कर सकता हो तो वह चर्या के लिये मुनिचर्या के बाद श्रावक के किसी एक घर मे ही आहार कर लेता है । एक घर आहार न मिलने पर उस दिन वह नियम से उपवास रखता है । फिर गुरु के समीप जा कर विधि के साथ चार प्रकार के आहार का प्रत्याख्यान ग्रहण करके गोचरी का सब वृत्तात यत्न के साथ गुरु के आगे निवेदन कर देता है ।
यह चर्या प्रथमोत्कृष्ट श्रावक की बताई है । वही चर्या द्वितीयोत्कृष्ट श्रावक की होती है । दोनो मे फर्क इतना ही है कि- द्वितीयोत्कृष्ट श्रावक नियम से लौच करता है और हाथ मे भोजन जीता है । यह कौपीन मात्र वस्त्र का धारी होता है । ( गाथा ३०१ )