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[* जैन निबन्ध रत्नावली भाग २
ब्रह्मदेव ने वसुनन्दो की जिन दो गाथाओ को लेकर उनकी जितनी और जैसी व्याख्या द्रव्यसग्रह मे की है। वैसी ही और उतनी ही व्याख्या जयसेन ने पचास्तिकाय मे मूलाचारवाली एक ही गाथा उद्ध, त करके की है। इससे स्पष्टत• यही प्रतिभासित होता है कि इस स्थल मे अगर जयसेन ने ब्रह्मदेव का अनुसरण किया होता तो वे भी दोनो गाथाओ को देकर उनकी व्याख्या करते पर जयसेन ने ऐसा नहीं किया। उन्होने तो सिर्फ एक मूलाचारवाली गाथा ही की व्याख्या की है। और ब्रह्मदेव ने दोनो गाथाओ को उद्ध त करके उनकी व्याख्या की है। इससे यह भी प्रगट होता है कि-जयसेन ने जिस एक गाथा की व्याख्या की है उसे उन्होने मूलाचार से ली है न कि वसुनन्दी श्रावकाचार से और ब्रह्मदेव ने जिन दो गाथाओ की व्याख्या की है उन गाथाओ को उन्होने वसुनन्दिप्रावकाचार से ली है।
, जयसेन और ब्रह्मदेव इन दोनो की टीकाओ मे अन्य भी कई एक स्थल समानता को लिये हये है उनमे से पचास्तिकाय गाथा २७ की टीका (पृ० ६१) मे "इदानी मतार्थ कथ्यते" ऐसा लिखकर “वच्छक्खर" गाथा उद्ध त करते हुये १० पक्तिये गद्य मेलिखी हैं जिनमे चार्वाक, भट्टचार्वाक, साख्य, बौद्ध, मीमासक
卐 उदाहरणार्थ देखिये :
जयसेन कृत टीका'- ब्रह्मदेवकृत टीका - पचास्तिकाय गाथा २३ परमात्मप्रकाश दोहा १४७ पचास्तिकाय गाथा १५२ परमात्मप्रकाश दोहा १५६ पचास्तिकाय गाथा १४६ । द्रव्यसग्रह गाथा ५७ पचाम्तिकाय गाथा २७ द्रव्यसग्रह गाथा ३