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________________ ३७० ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ उसका सिद्धात है कि जैसे एक विद्यार्थी नकशे को अपने सामने रखकर अपने हाथ से वैसा ही नकशा खेचने का अभ्यास करता है, वैसे ही शाति चाहने वाला शातिमय मूर्ति की उपासना कर उसके निर्विकार भाव को अपने हृदय पट पर उतारने का अभ्यास कर सकता है, बतलाइये इसमे कोनसी बात खण्डन के योग्य है। उसीके अनुरूप उसमत के साधु होते हैं, जिनके लिये लिखा है कि "वे विषयो की आशा से रहित होते हैं, आरम्भ और परिग्रह के त्यागी होते है और होते हैं ज्ञान, ध्यान, तप, मे लवलीन, साथ ही शाति के अवतार, निर्मोही, निर्लोभी, इद्रियो के विजेता, और विशाल क्षमा के धारी होते है। उनकी तपस्या, रहन-सहन इतने ऊँचे दर्जे की होती है कि हरएक विषय-लोलुपी उस वेष को धारण नही कर सकता। इसलिये "नारि मुई घरसपति नाशी। मूड मु डाय भये सन्यासी" जैसे फक्कडो का बोलबाला जैनधर्म मे दिखाई नहीं पड़ता। सुलफो, और गांजो की दम लगाने वाले लाखो नामधारी साधु समूह ने जो भारतवर्ष को बरबाद कर रक्खा है, उसमे जैन नाम धारी कोई साधु आपको न मिलेगा। जैन मुनि चाहे थोडेही मिलो, पर वे होंगे देश के लिये जवाहिरात की तरह कीमती चीज। जो दया पालन के लिये इतने मशहूर होते हैं कि वे अपने शिर के बालो को भी जूओं के बचाव के लिये उश्तरो से नही मुडवाते, किन्तु अपने ही हाथो से शिर और डाढी मूछ के बालो को घास की तरह उखाड कर फेंक देते हैं। यह है "सिंहवृत्ति" इसके लिये अदम्य साहस, शरीर से गहरी निस्पृहता और घोर धीरवीरता चाहिये, उसे दीन और विषयो के भिखारी धारण नहीं कर सकते। यह बात "श्रीयुत महामहोपाध्याय डा० शतीशचन्द्र विद्याभूषण जैसे प्रकाड
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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