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३४२ ] . [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २
तास्तु कन्वया ज्ञेया याः प्राप्याः पुन्यकर्तृभिः । फलरूपतया वृत्ताः सन्मार्गाराधनस्य वै ॥६६॥ सज्जाति. सद्गृहित्वं च पारिवाज्यं सुरेन्द्रता। साम्राज्यं परमाहंन्त्यं परनिर्वाणमित्यपि ॥६७॥ स्थानान्येतानि सप्त स्युः परमाणि जगत्त्रये । अर्हनवाग्मृता स्वादात् प्रतिलभ्यानि देहिनाम् ॥६॥
पर्व ३८ अय -अथानतर हे द्विजो मैं आगे उन कन्वय क्रियाओ को कहता हू जोकि अतिनिकट भव्यप्राणी ही के हो सकती है।
कन्वय क्रियायें वे है जो पुण्य करने वालो को प्राप्त होती हैं। और जो समीचीन मार्ग की (सोलहकारण की) आराधना करने के फलस्वरूप प्रवृत होती हैं। उनके नामसज्जाति, सद्गृहित्व, पारिवाज्य, सुरेन्द्रत्व, साम्राज्य, परमाहत्य और परनिर्वाण । ये तीन-जगत् मे ७ परमस्थान माने गये है। ये स्थान अहंत के वचनामृत के पान से जीवो को मिलते है। अर्थात जिनवाणी के अभ्यास से मिलते हैं।
ये ही सात परमस्थान पीठिकादि सात जाति के मत्रो मे गभित हैं । वे इस तरह कि- पीठिका मत्रो मे परनिर्वाण स्थान जातिमत्रो मे सज्जाति स्थान, निस्तारक मत्रो मे सद्गृहित्व, ऋपिमन्त्रो मे पारिव्राज्य, सुरेन्द्रमन्त्रो मे सुरेन्द्रस्थान,परमराजादिमन्त्रो मे साम्राज्य स्थान और परमेष्ठिमन्त्रो मे परमाहत्य स्यान । इस प्रकार सातो जाति के मन्त्रो मे सातो परमस्थान गभित हो रक्खे हैं।
इन परमस्थानो के जिस अनुक्रम से उपर नाम लिखे है