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पीठिकादि मत्र और शासनदेव ]
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उसी अनुक्रम से ही वे तीर्थकर होने वाले जीव के होते है । ऐमा आदिपुराण के निम्नपद्यो से प्रगट होता है -
भव्यात्मा समवाप्य जातिमुचिता जातस्तत सद्गृही। पारिवाज्यमनुत्तरं गुरूमतादासाद्य यातो दिवम् ॥ तनन्द्रों श्रियमाप्तवान् पुनरतश्च्युत्वा गतश्चक्रितां । प्राप्ताहत्यपद. समग्रमहिमा प्राप्नोत्यतो निर्वृतिन् ॥२११॥
पर्व ३८ अर्थ-वह भव्य पुरुष प्रथम ही योग्य जाति सज्जाति को पाकर सद्गृहस्थ होता है। फिर गुरू के पास से उत्कृष्ट परिव्रज्या (मुनि दीक्षा) धारण कर स्वर्ग जाता है। वहा उसे इन्द्र की सम्पदा मिलती है। तदनतर वहा से च्युत होकर चक्रवर्ती पद को प्राप्त होता है। फिर अहन पद को पाकर समस्त महिमा का धारी होता है । और इसके बाद निर्वाणको प्राप्त करता है।
इस विवेचन से साफ तौर पर यही सिद्ध होता है कि पीठिकादि सप्तविधमन्त्रो मे केवल सप्त परम स्थानो का उल्लेख है वहा शासन देवो का कोई प्रसग ही नहीं है। सुरेन्द्रमन्त्र भी सुरेन्द्र नामक परमस्थान की वजह से समझने चाहिये, न कि शासनदेव की वजह से अथवा भाविनगमनय की दृष्टि से तीर्थकर पूज्यता को लेकर यह सब मन्त्र कल्प समझना चाहिये। खास ध्यान देने योग्य चीज यहा यह भी है कि इन सात जाति के मत्रो मे जो अर्हत, सिद्ध और ऋषि वाचकमत्र है। उनके आगे आचार्य ने केवल नम. शब्द लगाया है, स्वाहा शब्द भी नही लगाया है। और शेष मत्रो के आगे बिना नम शब्द के खाली स्वाहा शब्द लगाया है। इसका कारण स्पष्टत. यही ।
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