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★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
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मालूम होता है कि अर्हत, ऋषि खास पूजनीय होने से उनके आगे नम शब्द का प्रयोग किया है । और शेष परमस्थान पूजनीय नही होने से उनके आगे नम शब्द नही लिखा है । खाली स्वाहा शब्द लिखकर आहुति ( आह्वान ) देने मात्र उनका सम्मान प्रदर्शित किया है । वह भी गर्भाधान, विवाहादि सासारिक कार्यो मेही । और अहंत, सिद्ध व ऋषि वाचक मत्रो के आगे जो स्वाहा शब्द भी नही लगाया गया है उससे आचार्य का अभिप्राय उनको यहा आहुति दिलाने का भी नही जान पडता है । क्योकि दूसरो को आहुति देने के साथ इनको भी आहुति देने के लिये स्वाहा शब्द लिख देते तो पूजा की पद्धति सबको समान हो जाती । ऐसा होना आचार्य को अभीष्ट नही था । इसलिये आचार्य ने अहंतादिको के आगे स्वाहा शब्द नही लिखा, खाली नम शब्द लिखकर यह भाव दर्शाया है कि अर्हतादिक को यहा आहुति नही देनी चाहिये, नमस्कार करना चाहिये ।
यहा आचार्य जिनसेन ने तो सुरेन्द्र परमस्थान के धारी सुरेन्द्र तक को सुरेन्द्रमत्रो मे नमस्कार के योग्य नही माना है । ऐसी हालत मे आशाधरादिको का अपने-अपने प्रतिष्ठापाठादि क्रियाकाडी ग्रंथो मे भवनत्रिक देवो की जो किसी तरह परमस्थान के धारी भी नही है अर्हतादि की तरह नम. शब्द के साथ पूजा का कथन करना निश्चय ही जिनसेनाचार्य की आम्नायं से वहिर्भूत है । अत मान्य नही है ।
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यहा ऐसा भी नही समझना कि सुरेन्द्रमत्रो मे स्वाहा शब्द से इन्द्र को आहुति देने का कथन करके ग्रन्थकार ने शासन देवो की पूजा का आशय व्यक्त किया है । ग्रन्थकार तो सुरेन्द्रमत्रो की तरह गृहस्थाचार्य के वाचक निस्तारक मंत्रो मे भी