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पीठिकादि मंत्र और शासनदेव ]
[ ३४५ स्वाहा लिखते है इससे यही फलितार्थ निकलता है कि ग्रन्थकार की दृष्टि स्वाहा शब्द लिखते वक्त परमस्थान की तरफ थी जिससे दोतो ही परमस्थानीय होने से दोनो ही के मत्रो मे उन्होने स्वाहा लिख दिया है । "क्या कोई शासन देव भी होते हैं " ऐसा तो उनके विचारो मे भी नहीं था।
प्रश्न- अगर ऐसी ही बात थी तो पीठिकामत्रो मे अग्निकुमारो के इन्द्र का नाम और निस्तारक मत्रो मे कुबेर का नाम तथा सुरेन्द्रमत्रो मे "अनुचराय स्वाहा" जिसका अर्थ होता है इन्द्र के अनुचरो को स्वाहा इत्यादि उल्लेख क्यो किये हैं ? ये तो परमस्थान भी नहीं है फिर इन सब को स्वाहा कसे लिखा ?
उत्तर - पीठिकामन्त्रो मे से जिस मन्त्र मे अग्निकुमारो के इन्द्र का नाम आया है वह मन्त्र यह है-सम्यग्दृप्टे २ आसन्नभय २ निर्वाणपूजाई २ अग्नीद्र स्वाहा ।" इसमे स्वाहा के पूर्व चतुर्थी विभक्ति नहीं है जैसाकि अन्य गन्त्रो मे है किन्तु सबोधन है। इसलिये अग्नीन्द्र के लिये “स्वाहा" ऐसा अर्थ तो यहा होता नहीं है। अग्निकुमारो के इन्द्र की गणना सप्त परमस्थानो मे भी नहीं है इसलिये भी उसके स्वाहा नहीं लिखा जा सकता है। अनेक दूसरे मन्त्रो के देखने से ऐसा विदित होता है कि कितने ही मन्त्रो मे स्वाहा शब्द का प्रयोग उस मन्त्र की पूर्ति अर्थ मे किया जाता है। यानी अखीर मे स्वाहा लिखकर उस मन्त्र की समाप्ति की सूचना दी जाती है । इसके सिवा वहा स्वाहा का अर्थ आहुति देना या द्रव्य अर्पण करना घटित नहीं होता है। उदारहण के लिये प्रतिष्ठापाठो मे शुद्धि मन्त्र इस प्रकार लिखा मिलता है
ओ ह्री अमृते अमृतोद्भवे अमृतवर्षिणि अमृत स्रावय २