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३४६ ] [* जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ झ्वी क्ष्वी हस स्वाहा । “ऐसा बोलकर जल के छीटे देवे । तथा विघ्न निवारण मन्त्र ऐसा लिखा है -
ओ ह क्ष फट् किरिटि २ घातय..." ह्र' फट स्वाहा ।” बोलकर सरसो फेके । "ओ नमोहते सर्व रक्ष २ ह फट् स्वाहा ।" इसे ७ बार वोलकर पुष्पाक्षत परिचारको पर डाले । यह रक्षामन्त्र है। इसी तरह सकलीकरण विधि मे 'ओं हां णमो सिद्धाण स्वाहा” बोलकर ललाट का स्पर्श करे। इत्यादि इसी तरह से स्वाहा का प्रयोग यहा पीठिका मन्त्रो में जिनसेन ने अग्नीद्र के साथ किया है। इस प्रकार के मात्रिक प्रयोग जिनसेन ने आदि पुराण मे अन्यत्र भी किये हैं। देखिये पर्व ४० के श्लो० १२२ और १२६
"सम्यग्दृष्टे २ सर्वमातः २ वसुन्धरे २ स्वाहा" बोलकर बालक का नाभिनाल पृथ्वो मे गाड दे। "जिस प्रकार सम्यक्त्व को धारण करने वाली जिनमाता सब की माता है उसी प्रकार सबकी आधारभूत होने से पृथ्वी भी सबकी माता है ऐसी है पृथ्वो" ऐसा इस मन्त्र का भावार्थ है। सम्यग्दृष्टै यह विशेषण जिनमाता का है पृथ्वी का नही है । और सर्वमात. यह विशेषण दोनो ही का है।
"सम्यग्दृष्टे २ आसनभव्ये २ विश्वेश्वरि २ उजित पुन्ये २ जिनमाता २ स्वाहा ।" यह मन्त्र बोलकर पुत्र की माता को स्नान कराके।
सासारिक कार्यों को करते हुये पुण्य पुरुषो के नाम का उच्चारण करके यह भावना व्यक्त करना कि उन जैसे हम भी होबें या उनका स्मरण करना ऐसी इन मत्रो की शैली मालूम देती है।