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[ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
छपा है । वि. सं. १५४८ मे सेठ जीवराजजी पापडीवाल ने शहर मुडासा मे इन्ही जिनचन्द्र भट्टारक से हजारो मूर्तियो की प्रतिष्ठा कराई थी । श्रावकाचार के कर्त्ता प० मेधावी इन्ही जिनचन्द्र के शिष्य थे । उक्त भास्करनन्दि को भी सभवत इन्ही का शिष्य समझना चाहिये । इस हिसाब से इन भास्करनन्दि का समय विक्रम की १६ वी शताब्दी माना जा सकता है ।
एक " ध्यानस्तव" नाम का संस्कृत ग्रन्थ जिसमे अधिकतया रामसेन कृत तत्वानुशासन का अनुसरण किया गया है और जो जैन- सिद्धात भास्कर भाग १२ किरण २ मे छपा है वह भी इन्ही भास्करनन्दि का बनाया हुआ है । उसकी प्रशस्ति में भी वे ही पद्य हैं जो तत्वार्थ टीका मे लिखे है अत. दोनो के कर्त्ता एक ही है ।
श्री कुमार कवि
इनका वनाया हुआ १४६ संस्कृत पद्यो का एक "आत्मप्रबोध" नामक ग्रन्थ है, जो भारतीय जैन सिद्धात प्रकाशिनी सँस्था कलकत्ता से हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशित हुआ था । अनुवादक प० गजाधरलालजी न्यायतीर्थ थे । यह अध्यात्म विषय का बडा ही सरस सुन्दर ग्रन्थ है । कवि ने ग्रन्थ के अन्त मे अपना नाम देने के सिवा और कुछ भी परिचय नही दिया है, रचनाकाल भी नही लिखा है, इस ग्रन्थ का निम्नांकित पद्य प आशाधरजी ने अनगारधर्मामृत अ० ६ श्लो० ४३ की टीका मे उद्घत किया है :
मनोवोधाधीनं विनयविनियुक्त निजवधुर्वच पाठायत्त करणगणमाधाय नियतम् ।