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कतिपय ग्रथकारो का समय निर्णय ] [ ३०५
इनमे तीसरे श्लोक के चौथे चरण मे जो "शुभ गति" शब्द है वह अशुद्ध है, उससे अर्थ की सगति ठीक नही बैठती। इस श्लोक मे भास्करनन्दि ने अपने जिनचन्द्रगुरु के गुरु का नाम लिखा है पर श्लोक मे सर्वसाधु के सिवा अन्य किसी नाम की उपलब्धि नही होती किन्तु “सर्वसाधु" कोई नाम नहीं होता।
. अगर 'शुभगति' के स्थान पर 'शुभयति' पाठ मान लिया जाये तो मामला सब साफ हो सकता है। शुभयनि का अर्थ होगा शुभचन्द्र भट्टारक । प्रशस्ति के उक्त श्लोको का तब इस प्रकार अर्थ होगा .
जो न तो थू कते हैं, न सोते हैं, न दूसरो को आने जाने को कहते हैं, न शरीर को खुजाते हैं, न रात्रि मे गमन करते हैं, न हार को खोलते हैं, न द्वार को बद करते हैं, न पीठ लगाकर दीवार के सहारे बैठते हैं । ऐसे शुभचन्द्र मुनि (सवस्त्र भट्टारक) बद्धपर्यंक होकर आयु के अन्त मे सन्यास धारण कर सर्वसाधु (नग्न दिगम्बर) हो गए थे वे पूज्य हैं । उनके शुद्धदृष्टि, सिद्धातपारगामी, चारित्र भूषण जिनचन्द्र नाम के शिष्य थे। उन जिनचन्द्र के तत्वज्ञानी भास्करनन्दि नाम के विद्वान् शिप्य हुए जिन्होने तत्वार्थसूत्र पर यह सुखबोधिनी टीका बनाई" ।
__ पद्मनन्दि के शिष्य ये वे शुभचन्द्र है जिन्होंने दिल्ली जयपुर की भट्टारकीय गद्दी चलाई। इनका समय वि स १४५० से १५०७ तक माना है। फिर इनके पट्ट पर जिनचन्द्र बैठे थे। जिनचन्द्र का समय वि. म १५०७ से १५७१ तक का माना जाता है। इन जिनचन्द्र ने प्राकृत मे सिद्धातसार ग्रन्थ लिखा था जो माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला द्वारा "सिद्धातसारादि सग्रह" में