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* जैन निबन्ध रत्नावली भाग २
और वही भोजन मुनियों को भी दिया जा सकेगा । इस रीति से मुनियो के साथ जाने और उन्हे आहारदान देने मे कोई उद्दिष्ट दोष नही आ सकता है । जैन मुनियो को भक्ति पूर्वक निर्दोप दान देने से उत्तम भोग भूमि मिलती है । यह भोग भूमि इतनी सस्ती नहीं है जो किसी मनचले ने मुनि को कैसे भी आहार दे दिया और चट से भोग भूमि का टिकट मिल गया । इसके लिये भी दाता को त्याग और विवेक की बडी जरूरत है। आज तो इस दिशा मे गृहस्थो ने बडी उच्छङ्खलता धारण कर रखी है। आज तो बिना तीर्थयात्रा के ही मुनियो के साथ रसोई का सामान लिए मोटरे घूमती हैं। और धनी लोग ऐसो मे पैसा लगाने को ही बडा पुण्य समझ रहे हैं। बलिहारी है कलिकाल की। अब तो मुनि के निमित्त आरभ सारम्भ करना एक आम रिवाज सा हो गया है। मुनि भी उसका प्रतिवाद करते नहीं दिखाई देते हैं।
(४) आपने लिखा-किन्ही खास मुनियो के उद्देश्य से न बनाकर मुनि सामान्य के उद्देश्य से बनाने मे उद्दिष्ट दोष नही आता ।
समीक्षा
ऐसा कहना भी उचित नही है। क्योकि ऐसा कथन किसी आचार शास्त्र मे कही देखने मे नही आया है। बल्कि इसके विपरीत मूलाचार-पिण्ड शुद्धि अधिकार की गाथा ७ और उसको टीका मे स्पष्ट ऐसा लिखा है
"ये केवल निग्रंथा. साधवः आगच्छति तेभ्यो सर्वेभ्यो दास्यामीत्युद्देश्य कृतमन्न औद्देशिक भवेत् ।"