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उद्दिष्ट दोष मीमासा ]
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हो सकती है। क्योकि रास्ते मे ऐसे भी स्थान भाते हैं जहाँ दूर-दूर तक जैनियो की बस्ती ही नही है ऐसे स्थानो मे माथ मे श्रावको के चौके न हो तो कैसे काम चल सकता है ?
उत्तर-श्रावक लोग साथ मे जावे और मुनियो को आहार दान भी देवे तब भी उहिष्ट दोप से बचा जा सकता है। सिर्फ परिणामो के बदलने की जरूरत है। वध मोक्ष की आधारशिला परिणाम ही तो है। श्रावाक लोग इस खयाल को लेकर साथ मे क्यो जावे कि "मुनियो को तीर्थ तक सकुशल पहुँचाने के लिए रास्ते में उनके वास्ते आहार बनाकर उनको देते जायेगे।" किन्तु इस खयाल को लेकर साथ मे जाना चाहिए कि-हमको भी तीर्थ यात्रा करना है। यह अच्छा हुआ जो मुनियो का साथ मिला । मुनियो का धर्मोपदेश सुनने का यह एक उत्तम अवसर प्राप्त हुआ है। इन मुनियो के प्रसग से तीर्थयात्रा का सव समय धर्म ध्यान मे व्यतीत होगा। इस प्रकार के खयाल रखकर साथ जाने वाले श्रावको की अगर उत्कट इच्छा पात्रदान देने की भी हो तो उन्हे भी नित्य श्द्ध भोजन करने का नियम ले लेना चाहियेइमसे उन श्रावको को अपने खुद के लिए शुद्ध भोजन बनाना जरूरी हो जायेगा।
वीरनन्दिआचायकृत "आचारसार" अन्य के अ० ५ श्लोक १०५ मे-अवती के यहाँ आहार के लिए मुनि न जावे (प्रती के यहाँ ही जावे) ऐसा बताया है ऐमा ही अन्य अनेक शास्त्रो मे (मूला चार प्रदीपादि मे) वताया है । व्रती के यहाँ आहारादि लेने पर अनेक उद्दिष्टादि दोषो से बचा जा सकता है। किन्तु आज प्राय अवती के यहां ही आहार होने से अनेक दोप उत्पन्न हो रहे हैं ।