________________
८]
[ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
तिनिका प्रतिपक्षी नाही । अर कोई सामान्य मनुष्य आपको मुनि मनावै तो वह मुनिनिका प्रतिपक्षी भया । ऐसे भी स्थापना होती होय तो अरहन्त भी आपको मनावो ।
बहुरि वह कहे है - अवार श्रावक भी तो जैसे सम्भव तैसे नाही । तातै जैसे श्रावक तैसे मुनि ।
ताका उत्तर- श्रावक सज्ञा तो शास्त्रविषे सर्व गृहस्थ जैनी को है। श्रेणिक भी असयमी था ताको उत्तर पुराण विध श्रावकोत्तम कह्या । बारह सभाविषे श्रावक कहे, तहाँ सर्व व्रतधारी न थे, जो व्रतधारी होते तो असयत मनुष्यनिकी जुदी सख्या कहते सो कही नाही । ताते गृहस्थ जैनी श्रावक नाम पावै हैं । अर मुनिसंज्ञा तो निर्ग्रन्थ विना कही कही - नाही । "मुनि के अट्ठाईस मूलगुण हैं सो भेषीनिके दीसते नाही । ताते मुनिपनो काहू प्रकार करि सभवे नाही । बहुरि गृहस्थ अवस्था विषै तो पूर्वे जम्बू कुमारादिक बहुत हिसादिक कार्य किये सुनिए है । मुनि होय करि तो काहूने हिसादि कार्य किये नाही, परिग्रह राखे नाही, तातै ऐसी युक्ति कारजकारी नाही । बहुरि देखो आदिनाथजी के साथ च्यारि हजार राजा दीक्षा लेय बहुरि भ्रष्ट भये तब देव उनको कहते भये- जिनलिंगी होय अन्यथा प्रवर्तोगे तो हम दंड देंगे। जिनलिंग छोडि तुम्हारी इच्छा होय सो तुम करो । ताते जिनलिंगी कहाय अन्यथा प्रवते ते तो दडयोग्य हैं, वदनादियोग्य कैसे होय ? " अन्य जीव उनकी सुश्रूषा आदि करे हे ते भी पापी हो है । पद्मपुराणा। विषै यह कथा है - जो श्रेष्ठी ( सेठ ) धर्मात्मा चारणमुनिनि को भ्रमते भ्रष्ट जानि आहार न दिया तो प्रत्यक्ष भ्रष्ट तिनको दानादिक देना कैसे सम्भव ?