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५० टोडरमल जी और शिथिलाचारी साधु ] [८७ तो और पक्षीनि को तो हस मान्या जाता नाही। तैसे मुनि का सद्भाव अबार कहा है, अर मुनि दीसते नाही तो औरनि को तो मुनि मान्या जाय नाही)
बहुरि वह कहै है एक अक्षर का दाता को गुरु मान है । जे शास्त्र सिखावै या सुनावै तिनिको गुरु कैसे न मानिये ?
ताका उत्तर-गुरु नाम बडे का है। सो जिस प्रकार की महतताजाकै सभवै तिस प्रकार ताको गुरु सज्ञा सभवै जैसे कुल अपेक्षा माता पिता को गुरु सज्ञा है। तैसे ही विद्या पढावने वाले को विद्या अपेक्षा गुरु सज्ञा हैं। यहाँ तो धर्म का अधिकार है। तातै जाकै धर्म अपेक्षा महतता सभवै सो ही गुरु जानना। सो धर्म नाम चारित्र का है। "चारित्त खलु धम्मो” (प्रवचनसार १-७) ऐसा शास्त्रविषे कया है । ताते चारित्र का धारक ही को गुरु सज्ञा हैं। बहुरि जैसे भूतादिक का भी नाम देव है, तथापि यहा देव का श्रद्धान विषै अरहत देव ही का ग्रहण हैं, तैसे औरनिका भी नाम गुरु है, तथापि इहा श्रद्धान विषै निर्ग्रन्थ ही का ग्रहण है । सो जिन धर्भ विष अरहंत देव निग्रंथ गुरु ऐसा प्रसिद्ध वचन है।" तातै बाह्य आभ्यन्तर परिग्रह रहित निग्रंथ मुनि है सो ही गुरु जानना।
यहाँ कोऊ कहै-ऐसे गुरु तो अबार यहां नाही। ताते जैसे अरहत की स्थापना प्रतिमा है तैसे गुरुनिकी स्थापना ये भेषधारी है।
ताका उत्तर-जैसे राजाजी की स्थापना चित्रामादिक करि कर तो राजा का प्रतिपक्षी नाही। अर कोई सामान्य मनुष्य आपको राजा मना तो राजा तिसका प्रतिपक्षी होइ.। तैसे अरहतादिक की पाषाणादि विषै स्थापना बना तो।
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