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प० टोडरमल जी और शिथिलाचारी साधु ]
[ पर्द
(यहाँ कोऊ क है - हमारे अन्तरग विषे श्रद्धान तो सत्य है परन्तु बाह्य लज्जाकरि शिष्टाचार करे है सो फल तो अन्तरंग का होगा । )
ताका उत्तर- षट्पाहुडविषै लज्जादि करि वदनादिक का निषेध दिखाया था सो पूर्वे ही कह्या था । बहुरि कोऊ जोरावरी मस्तक नमाय हाथ जुडावै तब तो यह सम्भव जो हमारा अंतरंग न था । अर आपही मानादिक ते नमस्कार करें तहा अतरग कैसे न कहिये । जैसे कोई अतरग विपैं तो मास, मदिरा को बुरा जाने अर राजादिक का भला मनावने को मदिरा पान और मास भक्षण करें तो वाको व्रती कैसे मानिये ? तैसे अतरग विषे तो कुगुरु सेवन को बुरा जाने अर तिनिका या लोकनि का भला मनावने को कुगुरुसेवन करे तो श्रद्धानी कैसे कहिये ? जातै बाह्य त्याग किये ही अन्तरग त्याग सम्भव है । ताते जे श्रद्धानीजीव हैं तिनको काहू प्रकार करि भी कुगुरुनिकी सुश्रूषा आदि करनी योग्य नाही .... श्रद्धानी तो रागादिक को निषिद्ध श्रद्ध है । वीतराग भाव को श्रेष्ठ मान है । तातै जिनके वीतरागता पाइये वैसे ही गुरुओ को उत्तम जानि नमस्कारादि करें है । जिनके रागादि पाइये तिनको निषिद्ध जानि नमस्कारादि कदाचित भी करें नाही । कोऊ कहै - जैसे राजादिक को नमस्कार करें तैसे इनको भी करें है ।
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ताका उत्तर - राजादिक धर्मपद्धति विषे नाही । गुरु का सेवन धर्मपद्धति विर्ष है सो राजादिका सेवन तो लोभादिक तं हो है । तहा चारित्रमोह ही का उदय सभव है । अर गुरूनि की जायगा कुगुरूनिको सेये तत्त्वश्रद्धान के कारण गुरू थे तिनते प्रतिकूली भया, सो लज्जादितें जाने कारण विषै