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श्रावक की ११वी प्रतिमा ]
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अशुद्ध वस्तुओ से निर्मित होते हैं अत ऐसे कमण्डलु ग्रहण नही करने चाहिये । लकडी के स्वाभाविक वा उन पर तेल लगे हुए ही ग्रहण करना योग्य है। (मुनियो के भी वारनिशपेन्ट के कमण्डलु ठीक नहीं)
(४) प्राचीनसमय मे तो क्ष ल्लक (समग्र ११वी प्रतिमा) के लिए पात्र मे ही आहार करना विहित था किन्तु बाद मे किसी-किसी ग्रन्थकार ने कर मे भी आहार करने की लिख दी फिरभी मुनि की तरह अजुलि जोडकर नहीं इस सबका विस्तृत विवेचन पूर्व मे कर चुके हैं।
कर पात्र अर्थ-कर रूपी पात्र (कर ही) तथा कर मे रखा हुआ पात्र दोनो बन सकते है। व्याकरण शास्त्र के अनुसार प्रथम अर्थ वहुव्रीहि समास से तथा दूसरा अर्थ सप्तमी तत्पुरुप समास से निष्पन्न होता है। जैसे–'लोकनाथ' शब्द के लोक ही है नाथ जिसका अर्थात् दीन अनाथ मनुष्य तथा लोक का नाथ अर्थात् राजा दोनो बनते है।
फिर भी आशाधर ने प्रथम अर्थ के लिए पाणिपात्र शब्द का प्रयोग किया है और दूसरे अर्थ के लिए पात्र-पाणि शब्द का देखो सागार धर्मामृत अ७ श्लोक ४० “पात्र पाणिस्तदगणे।"
(५) पूर्वाचार्यों ने तो ११वी प्रतिमा में पिच्छी रखना बताया ही नही है बाद मे किसी-किसी ने बताया है तो द्वितीयोत्कृष्ट जिसे आज ऐलक कहते हैं उसी के लिये बताया है। प्रथमोत्कृष्ट क्षुल्लक के लिए तो वस्त्र का मृदपकरण रखना बताया है।
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