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[ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
स्पष्ट परिग्रह पक मे फंसना है जिस परिग्रह पक कावी प्रतिमा मे ही सर्वथा त्याग कर चुके पुन उसका ग्रहण करना पीछे लौटना या नीचे गिरना है।
(२) सर्वप्रथम वसुनन्दि ने दो भेद ११वी प्रतिमा के किये है किन्तु उन्होने दो और एक वस्त्र की दृष्टि से ये भेद नहीं किये है। उन्होने प्रथमोत्कृष्ट के लिए भी एक वस्त्र (शाटक-धोती रूप) ही बताया है और द्वितीयोत्कृष्ट के लिए भी एक कोपीन मात्र ही।
पूर्व शास्त्रों में जो ११वी प्रतिमा मे एक शाटक व कोपीन दोनो प्रकार के विकल्प चलते थे उसी के वसुनन्दि ने पृथक्-पृथक् रूप मे दो स्वतन्त्र भेद कर किये हैं। पर बाद मे तो अनेक ग्रन्थकारो ने एक प्रथमोत्कृष्ट के ही दो वस्त्र का विधान कर इस मार्ग को जघन्य कर दिया है।
(३) पद्मपुराण पर्व १०० श्लोक ३६-'अशुकेनोपवीतेन सितेन प्रचलान्मना" मे क्ष ल्लक के सफेद वस्त्र ही बताया है ऐसा हो पुष्पदन्त कृत यशोधर चरित और आशाधर कृत सागार धर्मामृत मे है। किसी भी दि० ग्रन्थ मे क्ष ल्लक के लिए रंगीन वस्त्र नही बताया है। श्वे. जैनो के साघु साध्वी के भी सफेद वस्त्र ही है। इस तरह समन जैनसाधू समाज मे श्वेत वस्त्र ही प्रचलित है । श्वेत रग वैराग्य का द्योतक है जबकि अन्य सब रग राग भाव के द्योतक और हिंसा जन्य हैं । अत. दि० क्ष ल्लको को श्वेत परिधान ही ग्रहण करने चाहिए।
बिहुत से क्षुल्लकादि अपने कमण्डलु के गोपाल वारनिस या रगीन पेट लगे हुए रखते है किन्तु ये वारनिस-पेन्ट नितात