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[ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २
5 जिन-पूजा मे पूजक (इन्द्र) पूज्य ( जिनेन्द्र ) और पूजाद्रव्य ( ८ ) सब मे स्थापना निक्षेप का प्रयोग किया जाता है ताकि सरलता विशेषता प्राशुकता अहिंसकता पवित्रता अपरिग्रहता निरारमता रहे।
" घेवर गिदोडा बरफी जु पेडा" बोलकर भी एक चिटक मात्र चढाना इसी का रूप है । जैन संस्कृति की यही शालीनता सूक्ष्मता है ।
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वोलते हम - ' द्रौपदी का चीर बढाया, सीता प्रति कमल रचाया" जैसी ईश्वर कर्तृत्व रूपी वाणी किन्तु मानते कभी ऐसा नही अर्थात् जिनेन्द्र को अन्य धर्मियो के ईश्वर की तरह कर्त्ता नही मानते । यह विसंगति या झूठ नही है यह खूबी है भक्ति पूजा मे यही जैनो की विशेषता है ।
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अजयष्टव्य ( अज से यज्ञ = पूजा करना चाहिये) मे 'अज' का अर्थं न तो बकरा है और न तीन वर्ष पुराना धान्य किन्तु जैन सस्कृति मे जो नहीं उगता ऐसा तुष = गरडी रहित चावल लिया गया है जो इसकी प्रांजलता सूक्ष्मता मौलिकता का द्योतक है । इसी तरह पूजा मे असली द्रव्य बोलते भी - नकली चढाते हैं । असली सुबोधता की दृष्टि से बोलते हैं और नकली अहिंसकतादि को दृष्टि से चढाते हैं । जैसेरामलीला मे रावण वध के दृश्य मे रावण - राक्षसादि पात्रों को साक्ष द ( असल) नही माते हैं क्योंकि ऐसा करना महान हिंसा जनक है । इमी तरह राक्षसो का मद्य मास सेवन, लकादहन भादि भी साक्षात् (असली) नही बनाये जाते क्योंकि ऐसा करना भी महान् आपत्तिजनक है । यहाँ नकली काम तो श्रेयस्कर होता है और असली अनुचित | भक्ति की परिभाषायें ही जुदी होती हैं अत बोलना क्या मानना क्या और करना क्या इसमे असामजस्य या असत्य ढूंढना ही स्वय में असत्य है ।
जिनपूजा भी एक तरह की तीर्थकर लीला है इसमे पवकल्याणक के रूप मे सारा तीर्थंकर-जीवन प्रतिदिन स्मरण कराया जाता है । अष्ट