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दयामय जैन धर्म और उसकी देव पूजा ]
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प्रवृत्ति स्वीकार की जाती और जहा सौभाग्य से ऐसी पवित्र अहिंसक प्रवृत्ति चली आ रही हो वहा कोई दुराग्रही इसे छोडना चाहे या कोई छुडाना चाहे तो इससे बढकर अफसोस और विवेक शून्यता क्या होगी ?
इस लेख मे सचित्त द्रव्य से मतलब लेखक का विशेषकर हरितपुष्पादि से ही है क्योकि अन्य सचित्त द्रव्य न इतने महाहिंसाजनक हैं और न उनका विशेष आग्रह ही किया जाता है । विस्तार भय से बहुत सी बातो का हम उल्लेख नही कर पाये अगर पाठको को मेरा यह प्रयास समयानुकूल हितावह रुचिकर जचा तो फिर सेवा मे उपस्थित हो सकू गा । अन्त मे एक बात और ध्यान देने योग्य है कि सचित्त पुष्पादि का चढाना ही आपत्तिजनक नही है बल्कि उन्हे प्रतिमा के अक मे रखना और भी ज्यादा गलत है । यह सव श्वेतावरीयता है दिगवरीयता नही । कोई अपने कपड़े कुल्हाडी से ही कट कर धोये इसके लिए वह स्वतन्त्र है चाहे फिर वे करें फटें किन्तु रुचिके नाम पर जैसे यह मूर्खता है वैसे ही प्रत्यक्ष हिंसा लक्षित कर भी जो सचित्त पूजा का पक्ष करते है वे जैन धर्म को नही समझते है | अहिंसादि की दृष्टि से ही आचार्यों ने यहाँ स्थापना निक्षेप रखा है फिर भी हम उसे न समझें यह अविवेक है | आशाधरादि सभी ने केशर चदन रगे अक्षतो की पुष्प सज्ञा दी है। इसी दृष्टि से हिंसाजन्य असली चमर की जगह हम गोटे आदि के नकली चमर ही ठोरते है जो सही है । यस्य नास्ति विवेकस्तु केवल यो बहुश्रुत । न स जानाति शास्त्रार्थान् दवपाकर सानिव || ( जिसके विवेक नही केवल बहुश्रुती है वह शास्त्रो के अर्थ को नही जानता जैसे चम्मच भोजन के जानता ।) फ्र
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