________________
६१८ ]
[ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
सूक्ष्म वुद्धया मदा शेयो धर्मो धर्मार्थमिनंरे । अन्यथा धमनुद्भव तद्विषात प्रसज्यते । (कल्याणार्थी को सदा सूक्ष्मबुद्धि से ही धर्म का अनुशीलन करना चाहिये । अन्यथा धर्म बुद्धि से ही धर्म और धर्मी दोनों का बिगाड़ हो मक्ता है।
was
(४) अब चौथा भेद पूजाफल रहा, इस पर भी ऊहापोह करने से चित्त पूजा जरूरी नहीं समझी जा मकती सो ऐसेआज प्राय हम लोग जिनेंद्र की पूजा करते हैं मो केवल एक रम पूरी करते हैं । परिणामो की स्वच्छता, भावो को वीतरागता व भक्ति को वास्तविकता के अश कितने होते हैं सो सब जानते हैं । ऐसी हालत में जितना पुण्य जिनपूजा से उपार्जन किया जायेगा उससे ज्यादा पाप सचित्त पुप्पो की हिंसा से रहेगा तो लाभ के स्थान मे हमारी हानि ही विशेष रहेगी, सौ रुपयो के लाभ के वास्ते पानसी रुपैयो का नुकसान उठाना तो किसी तरह योग्य नही है ।
इस प्रकार इस विषय मे हम जब किसी भी पहलू से शाति के साथ गहरा अनुशीलन करते हैं तो किसी रीति से भी सचित्त पुष्पो से जिनपूजा करना कम से कम इस समय मनुष्यो के लिये तो उचित नही बैठता। हम कहते हैं कि अगर अचित्त द्रव्यों से पूजा किया करे तो इसमे कौनसा अनर्थ हो जाता है और जैन धर्म के किस सिद्धात का विधात होता है ? शास्त्राज्ञा भी तो नहीं रोकती और जब जैनधर्म का उद्देश्य ही ऊचा उठाने का - अहिंसा की ओर ले जाने का है तो फिर ऐसा करने मे उलझन है ही क्या । धर्म का स्वरूप वाह्य मे जीय दया व अतरग मे रागद्व ेष का अभाव ही है या और है, इसमे अचित्त जा करने से कोई हानि नही दीखती तो फिर क्यो नही यह