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दयामय जैन धर्म और उसकी देवा पूजा ] [ ६१७ क्या यह उचित है कि-हम जब अपने खानपान, देनलेन, व्यापार आदि घर के कामो मे हिंसा अहिंसा का इतना खयाल रक्खे और धार्मिक पूजादि कार्यों मे उसे बिल्कुल स्थान न दे ? ऐसा कभी उचित नहीं।
(३) पूजा पर विचार करते है तो अष्टद्रव्यो की आवश्यकता ही हमारे परिणामो को स्थिर करने के लिये होती है जैसा कि नित्य पूजन मे श्लोक है
द्रव्यस्य शुद्धिमधिगम्य यथानुरूपं भावस्य शुद्धिमधिकामधिगतु काम । आलंबनानि विविधान्यवलव्य वल्गन् भूतार्थ यज्ञपुरुषस्य करोमि यज्ञम् ॥
अर्थात् यथानुकूल द्रव्य की शुद्धि प्राप्तकर भावो की अधिक शुद्धि को प्राप्त करने की इच्छावाला मैं नाना प्रकार आलबन को आश्रय करके सत्यार्थ पूज्य पुरुष का पूजन करता हूँ।
___ मतलब इसका यही है कि हमारे परिणाम सराग रूप हैं, अनेक भोगोपभोग वस्तुओ में फसे रहते हैं, चिरतन का अभ्यास छूट नही सकता इसलिये यदि द्रव्यो का अवलबन न ले तो परिणाम भगवत्पूजा मे स्थिर नही रहते, लीन नहीं होते। इस प्रकार जब द्रव्यालबन ही मात्र परिणामो के स्थिर करने के उद्देश्य से ग्रहण किया जाता है तो उसके लिए “सचित्त ही द्रव्य चढाये जाये" ऐसा आग्रह क्यो किया जा रहा है। सचित्त अचित्त दोनो मे से जो ज्यादा सुगम, पवित्र, सुलभ और अहिंसक हो वे ही बेखटके लेने योग्य है । यही विवेक है।