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६१६ } [* जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ जंसा नि श्री गमन्तभद्र स्वामी ने कहा है
'न पूजयायरत्वयि वीतरागे, न दिया नाय दिवात वैरे' जब हमारे वीतराग भगवान जीवो के पुज रूप पुप्पो से खुश नहीं और प्राशुका के गर रजित चावल रूप सकल्पित पुष्पो से नाराज नही तो क्यो महान् पातर किया जाये" रस से काम चले तो विप क्यो दे" । पवित्र प्रभु को प्रामुक वस्तु हो चढाई जा सकती है अप्रामुक नही । धम स्थान में तो इसका खास खयाल नयना चाहिये।
(२) पूजना पर विचार करते है तो हमारे जैनी भाइयो मे ऐमा कोई नहीं होगा जो अहिमा से हिंसा को श्रेष्ठ समझता हो।हिमा के बचाव के लिए कोई गत्रि में भोजन नहीं करते, कोई रात्रि मे जल नहीं पीते, दिमावरी मंदा जो लटो का पुज है नहीं पाते, अशुद्ध विदेशी खाद नही खाते, कईयो के हरियो का त्याग है या प्रमाण है इत्यादि रूप नियम अपने अहिंसा धर्म के पालन के लिए क ते है तो कैसे कहा जाये कि उनके हिंसा का पक्ष है । सागार धर्मामृत की टीका में लिखा है कियतिधर्मानुराग रहितानामगारिणा देश विरतेरप्य सम्यवत्वरूपत्वात् । 'सर्व विरतिलालस खलु देशविरति परिणाम' अर्थात् यति धर्म मे अनुराग रहित गृहस्थियो का देशवत भी मिथ्या है। 'मकल विरति मे जिसकी लालसा है वही देशविरतिके परिणाम का धारकहो मकताहै' इससे क्या यह नहीं सिद्ध होता है कि हमारा उद्देश्य कितना ऊचा रहता है । हम उस उच्च कार्य को धारण करने के लिए असमर्थ हो तो भी उमकी भावना हृदय से चली नहीं जाती, हर क्रियायो से हम उस तक पहुँचने का अभ्यास करेगे अन्यथा हमारे नियम ब्रतादि सब ही मिथ्या हो ज ते हैं।