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[ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २
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समग्र ही कलेवर दूसरे के रचे वाक्यो से भरते है और अपनी बुद्धि कुछ भी खर्च नही करते, या करते भी हैं तो इतनी सी जैसे ऊट के मुह मे - जीरा, वे उस ग्रन्थ के निर्माता नहीं कहला सकते । अपना आटा हो और दूसरे का नमक तो वह रोटी अपनी कही जायगी। पर दूसरे का आटा हो और अपना केवल नमक, तो वह रोटी दूसरे ही की कही जायगी । चारित्रसार के सम्बन्ध मे भी यही बात घटिन होती है । चामुंडराय की निज की रचना या तो उसमे कुछ भी नहीं है और हो भी तो 'नमक के बराबर - वाकी आटा मब दूसरों का ही उधार लिया हुमा है । यह बात चारित्रसार और तत्वार्थराज वार्तिक को तुलनात्मक ढंग से अध्ययन करने वाले को स्पष्टत दृग्गोचर हो सकती है । राजवार्तिक मे से अनेक जगह का चारित्र - विधेयक गद्य-भाग उठा उठाकर चारित्रसार मे ज्यो का त्यों या कुछ मामूला हेरफेर के साथ धर दिया गया है । चारित्रसारका करीब तीन तिहाई हिस्सा राजवांतिक की रचना से ही भरा हुआ है । नीचे हम दोनो के वे स्थान, बताते हैं । जहाँ एक समान गद्य पाया जाता हैं
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चारित्रसार पृष्ठ २ पक्ति चौथी (रजिवार्तिक अध्याय सूत्र २ वार्तिक ३) चारित्रसार पृष्ठ २-३ मे सम्युक्तव का अष्टागस्वरूप (राजवार्तिक अध्याय ६ सूत्र २४ वांतिक बा० सा० पृ० ४ सम्यक्तव के अतीचार ( रा० वा० अ० ७ सु० २३) चा० सा० पृ० ४ शल्यविवेचन ( रा० वा० अ० ७ सू० १८) चा० सा० पृ० ५ पंचाणुव्रत के लक्षण ( रा० वा० अ० ७ सूत्र
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२०) चा० सा० पृ० ५ से ७ तक अणुव्रतो के अतीचार ( रा० बा० अ० ७ मे देखो इस विषय के सूत्र) चौ० " सा० पृ० से
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