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साधुओं की आहारचर्या का समय ]
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टीका-"स प्रोषधोपवासी भवति य सप्तम्यास्रयोदश्याश्च दिवसे अतिथि जनाय भोजन दत्वा पश्चात् स्वय भुक्त्वा ततः अपराह्न जिनभवने गत्वा तत्र कृतिकर्म-देववन्दना कृत्वा उपवास गृह्णाति ।"
अर्थ-सप्तमी और त्रयोदशीके दिन अतिथि को भोजन जिमाकर और पीछे स्वय भोजन जीमकर फिर अपरान्हकाल मे जिन मन्दिर मे जाकर वहाँ सामायिक आदि क्रियाकर्म करके उपवास ग्रहण करे।
मध्याह्न मे मुनि को जिमाने और बाद मे खुद के जीमकर निमटने से अपराह्न काल आ जाता है। इसीसे यहाँ अपराह्न मे सामायिक करने व उपवास ग्रहण करने को कहा है। अपराह्न का उल्लेख खास गाथा मे भी किया है ।
सोमसेन त्रिवर्णाचार मे लिखा हैयथालाधं तु मध्याह्न प्रासुकं निर्मलं परम् । भोक्तव्य भोजन देहधारणाय न भुक्तये ॥६७१ मध्याह्नसमये योगे कृत्वा सामायिकमुद्रा। पूर्वस्यां तु जिनं नत्वा ह्याहारार्थ व्रजेच्छन. ॥६६॥ पिच्छं कमडलु वाम हस्ते स्कन्धे तु दक्षिणम् । हस्तं निधाय सदृष्टया स व्रजेच्छावकालयम् ॥७०॥
[अध्याय १२ अर्थ-मुनि को मध्याह्न के समय यथाप्राप्त प्रासुक और निर्दोप भोजन देहस्थिति के लिये जीमना चाहिये, स्वाद के लिये नही ।