________________
जिनवाणीको भ्रमात्मक लेखो से बचाइये 1
[ १७५
कहीं न कही अर्थ का अनर्थ न हुआ हो। इसका कारण है शास्त्रीय विषयो का अल्प परिचय । किसी जैन ग्रन्थ का अनुवाद अच्छा क्याकरण और सस्कृत का प्रकाड ज्ञाता है इतने पर ही उसका अनुवाद ठीक नहीं होजाता किन्तु तद् ग्रन्थ विषयक परिज्ञान होना भी जरूरी है तभी अनुवाद मे यथार्थता आ 'सकती है।
नीचे हम कुछ ऐसे विद्वानो के अनुवादो में अयथार्थता दिखलाते हैं जो जैन समाज मे गणनीय समझे जाते है
पंडित गजाधरलालजी और हरिवंशपुराण। (१) मध्यलोक के नीचे एक तनुवातवलय है। पृष्ठ ५३ ।
(२) हैमवत, हरि, विदेह....ये मेरुपर्वत की उत्तर दिशा मे है । पृ० ५३ ।
(३) हर एक मेरुपर्वत पर सोलह २ वक्षारगिरि है। पृ० ६४ ।
(४) मांस, मदिरा, मधु, जुमा, जिन वृक्षो से दूध झरता हो उनके फलो का खाना, वेश्या, पर स्त्री, इन सात व्यसनो का काल की मर्यादा लेकर त्याग करना नियम कहलाता है। पृ० २०६।
(५) कृष्ण ने बलभद्र के साथ अष्टम भक्त (चौला) धारण किया, पृ० ३६७ ।
ऊपर लिखित नं. १ से न०३ तक का वर्णन जिसे जैनधर्म के क्षेत्र ज्ञान का थोड़ा भी परिचय है वह भी नही लिख