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________________ १७४ ] [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ ओर ध्यान तक नही दिलाया है। इसलिये आज मैंने इस पर अपनी लेखनी उठाना उचित समझा है । हमारे यहा प्राचीन जैन ग्रथ प्रायः संस्कृत प्राकृत भाषा मे मिलते हैं जिनका रसास्वादन तद्भापा विज्ञ ही कर सकते है किन्तु अधिकतर जनता संस्कृत प्राकृतज्ञ नही है । अत उन्हे भी जैनधर्म की शिक्षा मिलती रहे इसी उद्देश्य से पहिले के विद्वान - जयचन्दजी, दौलतरामजी, टोडरमलजी सदासुखजी आदिको ने संस्कृत प्राकृतमय आगमो की हिन्दी वचनिकाए बनाई थी । उनका किया हुआ प्रयास सफल भी खूब हुआ है । आज सर्वसाधारण में जो गहन जैन सिद्धांतो की कुछ २ चर्चा सुन पडती है यह श्रेय उन्ही को है । उसी सदुद्देश्य को लेकर वर्तमान के कतिपय संस्कृत - प्राकृतज्ञ विद्वान भी आये साल जैन ग्रयो का अनुवाद बना २ कर प्रकाशित किया करते है । लेकिन उनमे और इनमे वडा अन्तर है । तब के विद्वान इतने नाम के भूखे नही थे जितने कि अब हैं । पहिले के विद्वानो के किये अनुवाद देखने से मालूम होता है कि उन्हे उत्सूत्र कथन करने मे वडा भय लगता रहता था । वे विद्वान् शक्तिभर मूलग्र थ के भाव को अन्यथापन से बचाये रखने का ध्यान रखते थे यहा तक कि जो बात समझ मे नही आती थी तो फौरन अपनी अल्पज्ञता दिखाकर उस स्थल को वहु ज्ञानी से समझ लेने की कह देते थे जैसा कि प० टोडरमलजी ने यत्रतत्र त्रिलोकसार मे लिखा है । किन्तु अबके विद्वान् ऐसा करना प्राय उचित नही समझते । अपनी अल्पज्ञता स्वय प्रकट करना निज के गौरव की भारी हानि समझते है । इन विद्वानो के अनुवादों मे बहुत कम अनुवाद ऐसे मिलेंगे जिनमे
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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