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जैन खगोल विज्ञान ]
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का प्रथम वीथी मे बताया है वह ताप भी उस वक्त उत्तर की तरफ के आकाश प्रदेशो की गोलाई मे उतना नहीं बताया है किन्तु उत्तरोत्तर घटता बताया है। और दक्षिण तरफ के आकाश प्रदेशोकी गोलाईमे उत्तरोत्तर बढता बताया है । इसका कारण शायद यह हो कि गोलाई का मोड जहाँ जहाँ कम दूरी पर हुआ है वहाँ वहां ताप कम फला है। और जहाँ जहाँ मोड अधिक दूरी पर हुआ है वहाँ वहाँ ताप अधिक फैला है।
। और जब सूर्य अन्तिम बाह्यवीथी में विचरता है तब वहाँ दोनो तरफ के सूर्यो का ताप १२७३२५३योजनो का रहता है । और दोनो तरफ का अधकार १६०६८३योजन प्रमाण रहता है । प्रकारातर से यो समझिये कि प्रथम वीथी मे जब सूर्य विचरता हैं तब उस प्रथम वीथी को आदि लेकर सभी वीथियो की अपनी-अपनी परिधियो मे १० भागो मे से ६ भागो मे ताप रहता है और ४ भागो मे अधकार रहता है। तथा जब सूय अन्तिम बाह्य वीथी मे विचरता है तब उसमे और अन्य सभी वीथियो की परिधियो मे १० भागो मे से ४ भागो मे ताप व ६ भागो मे अधकार रहता है। मध्य की शेष वीथियो मे से जिस किसी वीथी मे सूर्य के विचरते वक्त अन्य सब वीथियो मे ताप प्रमाण कितना है ? यह जानने के लिये उन वीथो की परिधियो मे ६० का भाग देने पर जो लब्धि आवे उसको सूर्य के विचरने वाली वीथी के दिनमान के मुहतों से गुणा करने पर जो सख्या हो उतने योजनो का उनमे ताप प्रमाण समझना चाहिये । इससे प्रगट होता है कि आदिपथ से बाह्यपथ की ओर जाते समय सूय का स्वभावत ही ताप उत्तरोत्तर घटता जाता है और बाह्यपथ से अभ्यतर पथ की ओर आते समय ताप उत्तरोत्तर बढता हुआ