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[ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग ३
है उसमे से आधा आगे को और आधा पीछे को रहता है। यानी माधिक ४७२६३ योजनो की दूरी पर भरत क्षेत्र के अयोध्यावामियो को वह पूर्वदिशा से उदय होता नजर आता है, और इतनी ही दूरी पर वह पश्चिम मे अस्त होता नजर आता है। निपधाचलके जिस स्थान पर मूर्यका उद्यास्त होताहै वह स्थान भी अयोध्या से इतना ही दूर है। इसी अपेक्षा से भरतक्षेत्र के वास्ते सूर्य का उद्यास्त निपध पर्वत पर बताया है। इतना ही प्रकाश मामने के दूसरे सयं का रहता है। दोनों तरफ अतराल मे अधयार रहता है। ज्यो ज्यो सूर्य आगे चलता जायेगा उमका प्रकाण भी उसके साथ आगे २ बढता जावेगा और पीछे २ अधकार होता आवेगा। इस वीथी की परिधि ३१५०८६ योजनों की है। उनमे से आमने सामने के दोनो सयों का ताप १८६०५३४ योजनो का है। तथा एक तरफ के अतराल मे ६३०१७ योजनो का अधकार रहता है। दोनो तरफ के अधकार का प्रमाण १२६०२५३ योजनो का होता है। कुल ताप (प्रकाश) और तम (अधकार) की जोड ३१५०८६ योजनो की होती है सो ही अभ्य तर प्रथम वीथी की परिधि (घेरा) होती है। इस वीथी मे सूर्य के गमन करते समय जवूद्वीप मे प्रायः सर्वत्र १८ मुहूर्तों का दिन और १२ मुहूतों की रात्रि होती है। इस वीथी मे स्थित सूर्य का उत्तर दक्षिण ताप मेरु के मध्य से लेकर लवण समुद्र के ६वे भाग तक फंता रहता है। ऊपर को आताप एक सौ योजन और नीचे को १८०० योजन तक रहता है । यह वीथी मेरु के मध्य से ४६८२० योजनों की दूरी पर है। इस वीथी से ज्यो ज्यो उत्तर की तरफ जाइये त्यो त्यों ही आकाश प्रदेशो की गोलाई उत्तरोत्तर कम होती जायेगी और दक्षिण की तरफ गोलाई बढ़ती जायेगी। अत. जो ताप प्रथम वीथी स्थित सूर्य