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जैन खगोल विज्ञान -]
[ ४१३ • तथा हम यह भी सर्वथा नहीं कहते कि पृथ्वी विल्कुल दर्पण के समान सपाट ही है, उसमे भी कालादिवश से ऊचाई नीचाई हुई है। यह बात आचार्य श्री विद्यानन्द स्वामीने श्लोकवार्तिक के निम्न वाक्यो मे प्रगट की है
"न च वय दर्पणसमतलामेव भूमि भापामहे प्रतीतिविरोधात् तस्या कालादिवशादुपचयापचयसिद्ध निम्नोन्नताकारसद्भावात्...... तत एव नोदयास्तमययो सूर्यादेविवार्द्ध दर्शन विरुध्यते । भूमिसलग्नतया वा सूर्यादिप्रतीतर्न सभाव्या, दूरादिभूमेश्तथाविधदर्शनजननशक्तिसद्भावात् ।"
[अध्याय ४ सूत्र १३] अर्थ-हम जैन यह भी नही कहते कि दृश्वी दर्पण के समान समतल ही है । समतल कहना प्रतीति के विरुद्ध है। कालादि के वश से घटावढी होकर पृथ्वी मे ऊचानीचापन देखा जाता है। इसलिये उदयास्त के वक्त सूर्यादि का आधा विव दिखाई देने मे कोई आपत्ति नहीं है। और विपक्षी का यह कहना कि पृथ्वी नारंगीवत् गोल न होती तो उदयास्त के वक्त सूर्यादि का भूमि से लगा हुआ दृष्टि मे आना सभव नही था" उचित नही है । वैसा तो भूमि मे दूरी होने और दूर की चीज पृथ्वी से लगी हुई नजर आवे ऐसी नेत्रशक्ति होने से भी हो सकता है।
इस प्रकार खासतौर से किसी पदार्थ की आड के कारण सूर्य का उदयास्त नही है। किन्तु समतल भूमि मे जहाँतक सूर्य का प्रकाश फैलता है। उसकी दूरी से सूर्य का उदयास्त समझना चाहिये । जब सूर्य अभ्यतर की प्रथम वीथी मे होता है तब उस का कुल प्रकाश पूर्व से पश्चिम मे ६४५२६ योजनो तक फैलता