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* जैन निवन्ध रलावली भाग २
गरते हैं । इम टोला में मल गन्ध का अयं तो गप्ट निया ही है किन्तु माव जाप आपने अपनी तरफ में भी विषय को समझाने
लिये यनान गाको विवेचन किया है जिनो नापका प्रपुर गाम्म ज्ञान नलकता चोर उगे पटकार, पाटका मामानी से विषयका हदयगमगर लेते है। बम विशालगायटीपा के बनाने मे काफी धमगरले मापने वास्लय में ही जन नमाज का बड़ा पगार किया जो पिनी तरह गुलाया नहीं जा माना।
उक्त हिंदी टीका माहित यर ग्लोगवातिक ग्रय आचार्य धुगागर गयमाना मोलापुर में प्रगट हमा। उससे अब तक गाच मा प्रकाशित की गाये है। न यो में नत्वार्थ मूत्र के साये अध्याय तमगा वर्णन आया है। र अध्याय अगले खण्टो में प्रकाशित होगे।
इस गय की हिंदी टीका के स्वाध्याय करने से इसमें दो चल हमारी नजर में ऐसे आये हैं जो चितनीय है। पहिला न्थन है दूसरे अध्याय का ४४ वा मूत्र-"निरुपभोगमत्य" । उसको व्याख्या हिंदी टीका में न्यायाचार्यजी ने जैमी की है वह उन्ही के गन्दी में देखिये -"पूर्ववर्ती चारो शरीरो की अपेक्षा करके अत में कहा गया पानवा कार्मण शरीर अत्य है। वह इन्द्रियो द्वारा उपभोग करने योग्य नहीं है। अवधिज्ञानी, मन पर्ययज्ञानी, अथवा केवलजानी महाराज यद्यपि कार्मण शरीर के रूप रस शब्द आदिको का विराद प्रत्यक्ष कर लेते है, किन्तु वे भी बहिरग इन्द्रियो द्वारा कार्मण शरीर के रूप रस आदि का साव्यवहारिक प्रत्यक्ष या मतिज्ञान नही कर पाते हैं। श्रृ गाररस में डूब रहा पुरुप स्त्रो के औदारिक या वैक्रियिक शरीर में पाये जा रहे गध स्पर्श रूप आदि का उपभोग कर सकता है,