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[ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
मिलकर फिर एक शरीर रूप बन जाते हैं। नरको में स्त्रियां नहीं होती हैं। उनका जन्म विलो की छत के अधोभाग मे होता है। उस समय वे चमगादडो की तरह आधे मुह लटकते हुए जन्मते हैं और नीचे जमीन पर गिरते है। जन्म लेने के बाद ही अपना मार-काट का काम शुरू कर देते हैं। सभी नारकियो का रूप बडा भयकर होता है । नरको मे आपस मे मार-काट का ही दुख नही होता, अपितु अन्य भी असहनीय दु ख होते हैं । वहाँ पर कितने ही विलो मे ऐसी भयानक गरमी पडती है कि जिस गरमी से लोहे का गोला भी गलकर पानी हो जाए। कितने ही विलो मे ऐसी प्रचण्ड ठड पडती है कि जिससे लोहे के गोले का खण्ड-खण्ड हो जाए । प्यास उन नारकियो को इतनी अधिक लगती है कि सब समुद्रो का पानी पी जाये, तवभी उन की प्यास बुझे नही परन्तु उनको विन्दुमात्र भी जल नही मिलता है । भूख उनको इतनी प्रचण्ड लगती है कि सारे ससार का अन्न खा जाए परन्तु उन्हे कणमात्र भी अन्न नहीं मिलता है। वहाँ की भूमि का स्पर्श ही इतना दुखदायी है कि जैसे विच्छुओ ने डक मार दिया हो। ये सब दारुण दु ख नारकियो को उम्रभर भोगने पडते हैं। वहाँ क्षण भर भी सुख नहीं है । घोर पापो का फल भोगने के लिए प्राणियो को इन नरको मे जाना पड़ता है।
इसके विपरीत जो पुण्यात्मा होते हैं, वे देवलोक मे जाकर सुख भोगते हैं। जिस मनुष्य लोक मे हम रहते है. वह 'मध्यलोक' कहलाता है। उससे नीचे 'अधोलोक' है-उसमे नरक है। मध्यलोक से ऊपर 'ऊर्वलोक' मे देवो का निवासस्थान है। वहाँ देव किसी पृथ्वी पर नही रहते हैं। वे सब विमानो मे रहते हैं । इससे भी बहुत ऊपर स्वर्गलोक है। वह हमारे