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[ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
पुराण ही मे सगं ७६. श्लोक ४७४ मैं "सत्यकि-पुषक" पद देते हुए मत्यकि नाम सूचित किया है अत. पर्व ७५ श्लोक १३ मे सत्यको को जगह मत्यकि सत्यकी शुद्ध पाठ होना चाहिए। इससे छन्दों भंग भी नही होता है।
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- हरिव शपुराण, तिलोय; पण्णत्ती, तिलोयेसार, हरिपेण कथाकोश विचारसार प्रकरण (प्रवे .) , सभी मे ११ रुद्र का नाम सच्चाइ मु. (मत्य कि सुत) देते हुए इस राजा का नाम सत्य कि- ही प्रकट किया है। इसी राजा का मुंनि अवस्था मे उत्पन्न प्रत्र ११ वा रुद्र है। अन्न. हमने 'मत्य कि' ही नाम सब जगह दिया है। हरिषेण कथा कोष मे सत्यक के माथ कही कही सात्यकि नाम भी दिया है। व० नेमिदत्त कृत आगधना 'कथाकोष मे ता सात्यको ही दिया है। प्राकृत के 'सच्चई' पद का सात्यकि और सत्यचि दोनों बन जाता है। तथा 'कि' भी ह्रस्व और दीर्घ दोनो रूपो में हो जाती है।
ज्येष्ठा पुत्री की याचना उसके पिता राजा चेटक से की थी। परन्तु चेटक ने उसे नही दी जिससे द्ध हो सत्यकि ने चेटक से सग्राम किया। सग्राम मे सत्यकि हार गयौं । अत लज्जित हो वह दमधर मुंनि से' दोक्षा ले मुनि हो गया। इसी तरह चलना पुत्री को भी राजा श्रेणिक ने मांगी थी परन्तु उस समय श्रेणिक की उम्र ढल चुकी थी जिससे चेटक ने उसे देने से इन्कार कर दिया था। फिर अभयकुमार के प्रयत्न से छिपे तौर पर चेलना के साथ श्रेणिक' का विवाह हुआ था उस प्रयत्न में ज्येष्ठा का विवाह सम्बन्ध भी श्रेणिक के साथ होने वाला था किन्तु चेलना की चालाकी से वैसा न हो