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दिगम्बर परम्परा में श्रावक-धर्म का स्वरूप ] [ २३५
अर्थात जो इन्द्रियो के विषयो से तथा उस स्थावर जीवो 1 की हिंसा से विरत नहीं है किन्तु जिनेन्द्र द्वारा कथित प्रवचन
का श्रद्धान करता है। वह अविरत सम्यग्दृष्टि चौथे गुणस्थान का धारी माना जाता है ।
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(अगर हम चौथे गुणस्थान में भी कुछ त्याग मान लेते हैं तो और फिर चौथे और पांचवे गुणस्थान में कोई अन्तर नहीं रहता है। इसलिये फलितार्थ यही निकलता है कि अविरत सम्यग्दृष्टि के यद्यपि प्रतिज्ञा रूप काई त्याग नही होता तथापि वह मांसमक्षण आदि जैसे महापापो मे प्रवृत्ति नही करता। सम्यक्त्व के प्रभाव से ऐसी ही उसकी प्रकृति हो जाती है।)
२ दूसरी व्रत प्रतिमा-जब प्रथम प्रतिमा वाला (श्रावक) ५ अणुव्रत, ३ गुणव्रत और ४ शिक्षा व्रत इन १२ व्रतों का माया-मिथ्यात्व निदान रूप तीन शल्य रहित होकर पालन करने लगता है तो उसके श्रावक की दूसरी प्रतिमा होती है। ये १२ व्रत श्रावक के उत्तर गुण कहे जाते हैं। इन १२ मे ३ गुणवतो और ४ शिक्षावतो की सप्तशील सज्ञा है। ये सप्तशील वाडी की भाँति व्रतरूप खेती की रक्षा करते हैं। इस प्रतिमा का धारी ५ अणवतो को तो निरति चार पालता है, परन्तु शेष ७ शील व्रतो मे उसके अतिचार लग जाते हैं।
(क) पांच अणुव्रत
स्थूलहिंसा, स्थूल झूठ, स्थूल चोरी, स्यूल कुशील और स्यूल परिग्रह इन पाचो पापो के त्याग करने को पांच अणव्रत कहते हैं। वे निम्न है