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[ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २
सम्यग्दृष्टि इससे पूर्व मद्यमांसादि का सेवन करता था? सम्यक्त्वी होकर भी मद्यमांसादि का सेवन करे यह कैसे हो । सकता है ?
उत्तर में कहा जा सकता है कि सम्यक्त्व की उत्पत्ति के साथ ही प्रशम, सवेग, अनुकंपा और आस्तिक्य ये चार गुण (पैदा हो जाया करते हैं। इसलिये सम्यग्दृष्टि का ऐसा भद्र स्वभाव हो जाता है कि जिससे उसकी उन महापापो के सेवन मे स्वभावत. ही प्रवृत्ति नही होती। पर उनका वह जब तक संकल्प पूर्वक त्याग नही करता है तब तक उसके प्रथम प्रतिमा नही कही जा सकती है । व्रत नाम तो तभी पाता है जब सकल्प से किसी का त्याग करे। जैसे मृग - कपोतादि अपने स्वभाव से ही मांस नहीं खाते है। पर मांस का उन्होने सकल्प पूर्वक त्याग नही किया है। इसलिये उनका मांस- त्याग व्रत नही माना जा सकता है। उसी तरह सम्यग्दृष्टि के सम्बन्ध मे समझ लेना चाहिये । और चू, कि श्रावक की प्रथम प्रतिमा ५ वेंगुण स्थान मे मानी जाती है। क्योकि इसमे यत्किंचित् श्रावक के व्रत शुद्ध हो जाते है । इस प्रतिमा के पूर्व सम्यग्दृष्टि के चौथा गुणस्थान रहता है जिसका नाम अविरत सम्यक्त्व है। उसमे सम्यक्त्व तो होता है पर विरति किसी प्रकार की नहीं होती क्योकि वहाँ अप्रत्या - ख्यानावरणो कषाय का उदय रहता है । इस कषाय के उदय मे जीवो के किंचित् भी त्याग नहीं होता है। चतुर्थ गुणस्थान का स्वरूप गोम्मटसार मे इस प्रकार बतलाया है
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णो इन्दियेसु विरदो, णो जीवे थावरे तसे वापि । जो सदहदि जिणुत्त, सम्माइट्ठी अविरदो सो ॥२६॥
-जीवकांड