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उद्दिष्ट दोष मीमासा ]
[ ६३५ आशय सूक्ष्म दोष बताने का क्या है ? इसके समझने मे आपने भूल की है। मूलाचार मे अध कर्म नामक महादोष जिससे मुनित्व ही नही रहता उसका वर्णन करने के बाद उद्दिष्ट दोष का वर्णन करते हुये टीकाकार ने उसे सूक्ष्म दोष बताया है सूक्ष्म दोष बतानेका कारण स्वय टीकाकारने यह लिखाहै कि-"अध - कर्म. पाश्र्वात् औद्दोशिक सूक्ष्म दोषपरिहत्तुं कामः प्राह"
अर्थात् अध कर्म नामक महादोप के पास मे मोहे शिक दोष सूक्ष्म है ? यानी अध कर्म जैसे महादोष के सामने यह दोष हलका है ऐमा इसका तात्पर्य है। इसका मतलब यह नहीं है कि वह मुनियो के लिये उपेक्षणीय समझकर प्रायश्चित्त के अयोग्य ही मान लिया जाय । आशीविष सर्प से अन्य सर्प कम विषैले होते है ऐसा कहने का यह मतलब नही है कि-उन अन्य साँ से न बचा जाये । जब ११वी प्रतिमाधारी श्रावक के लिये ही उद्दिष्ट दोष का टालना जरूरी बताया है तो इसी से समझ लीजिये कि वह मुनियो के लिये कितना बडा दोष हो सकता है और इसीलिए टीकाकार ने 'परिहत्तु काम' पद देकर इसे टालने के लिये स्पष्ट निर्देश किया है । उद्दिष्टदोष १६ उद्गमादि दोषो मे आद्य और प्रमुख है क्योकि बाकी के १५ दोष भी मुनि के उद्देश्य से ही बनते है अत वे सब भी एक तरह से उद्दिष्ट दोष के ही अङ्ग हैं ऐसी हालत मे उद्दिष्ट दोष को मामूली-उपेक्षणीय दोष बताना अयुक्त है मुनियो के २८
卐मूलाचार भ० ६ गाथा ४२ की टीका मे लिखा है किउद्गमोत्पादनादि अध कर्म के अश = हिस्से होने से परित्याज्य हैं। इन रोनो को अध कर्म (मुनित्व नाशक) के ही भाग बताये हैं मत ये सब