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[ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
मूलगुणो के अन्तर्गत ५ समितियों के नाम आते हैं । उद्दिष्टादि दोष महत आहार लेने वाले साधु के एषणा समिति का पालन नही होन से मूलगुण का घात होता है । मूलाचार के प्रथम अधिकार मे एपणा समिति का स्वरूप इसप्रकार बताया है-
छादाल दोससुद्ध कारणजुत्त बिसुद्धणवकोडी । सोदादीसममुत्ती परिसुद्धा एसणा समिदी ॥१३॥
अर्थ - जो आहार ४६ दोषो से रहित हो, ओर मन, वचन, काय, कृत कारित आदि नवकोटि से शुद्ध हो ऐसे आहार को कारणवश से लेना । तथा वह ठण्डा, गरम, रस, नीरस, रुक्ष कैसा भी हो उसके लेने मे समभाव रखना रागद्वेष नही करना इसे निर्मल एषणा समिति कहते है -
इसलिये भोजन मे उद्दिष्टादि दोषोका टालना मुनियो के लिये अत्यन्त आवश्यक है । आपके कथनानुसार ये नगण्य होते तो एषणासमिति नामक मूलगुण मे इनको टालने का आदेश
भी अध वर्म के हो उत्पादक हैं अत प्रखर दोष हैं इन दोपों से बचकर नही चलने वाला सीधा अध कर्म रूपी महागत मे गिरता है । उद्दिष्ट दोप से त्रम स्थावरो के पाप की अनुमोदना होती है अत यह त्याज्य ही है । महापुराण पर्व ३४ श्लोक १६६ मे बताया है कि उद्दिष्टा दि दोप दूषित आहार को चाहे प्राण चले जायें वे मुनि करते थे ।
ग्रहण नही
शकितामिहत दिद्ष्ट क्रयक्रीतादि लक्षण सूत्र निविद्ध माहार नेच्छन्प्राणात्ययेऽपि ते ॥ १६६ ॥