________________
उद्दिष्ट दोष मीमांसा ]
[ ६३६
प्रतिक्रमण कोई जादू का डण्डा नहीं है जो जानबूझकर निर्भय हो रोज दोष करते जाये, फिर भी उसके (मिच्छामि दुक्कड) पाठ मात्र से दोष दूर हो जाये । प्रतिक्रमण तो दोष लगो चाहे न लगो करना ही पड़ता है वह तो नित्यनैमित्तिक क्रिया है ( देखो मूलाचार अ०६ गाथा ६१)। दोषो का प्रायश्चित्त आलोचन करके भी पुनः उन्हे करने वाले साधु के अध कर्म बताया है और इहलोक परलोक की हानि बताई गई है ( देखो मूलाचार अ० १० गाथा ३६ ) ।
(२) आपने लिखा-वसतिका, पीछी, कमण्डलु आदि मुनियो के उद्देश्य से ही बनते हैं अत मुनियो के उद्देश्य से आहारादि के बनने मे कोई उद्दिष्ट दोष नही है। उद्दिष्ट का त्यागी मुनि होता है, श्रावक नहीं ।
समीक्षा आहारादि के बनाने मे मुनि का कोई योगदान हो इसे शायद आप उद्दिष्ट समझते हैं और इसी अभिप्राय से माप लिखते हैं कि -"उद्दिष्ट का त्यागी मुनि होता है श्रावक नही ।" परन्तु उद्दिष्ट का यह लक्षण नहीं है। आहारादि के बनने मे मुनिका अनुमति आदि कोई भी सम्पर्क हो तो वह अध कर्म दोष कहलाता है । यह दोष उद्दिष्टादि ४६ दोषो से अलग है । और वह मुनित्व का घातक महान् दोप है। आहारादि के वनाने मे पचसूना के द्वारा छह काय के जीवो की विराधना होना अध. कर्म कहलाता है | ऐसा कार्य गृहस्थ ही करता है।
* जिस रसोई के बनाने मे त्रस जीवों का घात हो उसे मापने अध कर्म कहा है । यह परिभाषा आपकी मनबढ़न्त है ।